हम लीने हे प्रभु ध्यान में…
हम लीने हे…!
करम भरम जंजीर से छूटे,
होई रहे एक तान में… ॥१॥
रोम-रोम परमानंद उलसत,
होत मगनता ज्ञान में,
सवि सभाव में तुंही तुंही,
ओर न आवत मान में… ॥२॥
ज्युं तरवारे अति दूर निकंदे,
अलग रही हे म्यान से,
आतमशक्ति भगति ज्युं तेसी,
होवे पुद्गल ठान से… ॥३॥
अहनिश मैत्रीभाव उदासीन,
त्रिभुवन अभयदान से,
अजब कला कोई ऐसी तुमची,
निश्चित नय परधान से… ॥४॥
“ज्ञानविमल” प्रभुता गुण तेरो,
पसर्यो आन प्रान से,
सहज सदागम बोध सुलभता,
देई सफळ करो दान से… ॥५॥