आचार्य श्री वज्रस्वामी जी | આચાર્ય શ્રી વજ્રસ્વામી | Aacharya Shri Vajra Swami
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आचार्य श्री वज्रस्वामी जी
अवन्ति (मालवा) देश में तुङ्गवन नामक एक कस्बे (गांव) में एक व्यापारी धनकुबेर-धनगिरी जिनको, दीक्षा के उत्कृष्ट भाव होते हुए भी, स्वेच्छा से धनपाल शेठ की पुत्री सुनंदा से विवाह किये थे।
वी. नि. सं. ४९६ में, जब सुनंदा के गर्भ में, जृम्भक देव, जिन्होंने अष्टापद पर्वत पर, श्री गौतमस्वामी से पुण्डरीक अध्ययन सुना था, वह जृम्भक देव का जीव, आया। वह जीव, जिन्हे हम वज्रस्वामी के नाम से जानते है। धनगिरी शेठने अब स्त्री को गर्भवती जान कर, सोचा कि, “अब मैं संसार से मुक्त हो सकता हूँ,” और, अपनी भार्या को यह कह कर कि, “तुम्हारे भाई आर्यसमित ने जिन गुरुके पास दीक्षा ली है, वह सिंहगिरि महाराज के पास, मैं भी दीक्षा लेने जा रहा हूँ” और, यह कहकर वह दीक्षा लिए। संयम ले कर, शास्त्रों का अभ्यास कर के तपस्या में लीन रहने लगे।
सुनंदा ने अपने पुत्र को जन्म दिया जो वजन में बहुत भारी था। सुनंदा की सभी सखियाँ पुत्र को देख कर हर्षोल्लास करने लगी और बोलने लगी, कि, “प्रिय, जो तुम्हारे पिता ने “”””दीक्षा”””” नहीं ली होती तो आज तुम्हारा जन्मोत्सव बहुत धाम धूम से मनाया जाता।”
यह “दीक्षा शब्द” सुन कर उसी समय पुत्र को जातिस्मरण ज्ञान हुआ और उनको, तभी दीक्षा लेने की इच्छा जागृत हुई। परन्तु छोटे से बालक की इच्छा को कैसे गति मिलती भला ? बस, बालक ने तो रोना शुरू कर दिया।
माता तथा उनकी सखियों ने बहुत प्रयत्न किया, पर सभी प्रयास निष्फल हुए और बालक को रोने से चुप नहीं करा सकें।
सुनंदा भी, अब इस बालक के रोने से परेशान हूँ चुकी थी और सोचने लगी कि, “कैसे इस बच्चे से अब छुटकारा पाऊँ। कहीं से इसके पिता सामने आये तो उसे सौंप दूँ और मैं इस हैरानगति से बाहर निकलूं।”
इतने में, श्री सिंहगिरि गुरु महाराज, अपने समुदाय-परिवार सहित, यही गांव में, विहार करते हुए पधारे। श्री संघ ने उनका आदरपूर्वक बहुमान, आदर-सत्कार किया।
👉🏻 मध्याह्न समये, श्री आर्यसमित के साथ, श्री धनगिरी म.सा. ने गोचरी के लिए जाने की अनुमति, गुरु म. सा. से मांगी और तब गुरु महाराज ने उनसे कहा कि, “””आज सचित-अचित का विचार नहीं कर के, जो मिलें वही लाना।””””
गोचरी के लिए घूमते घूमते वह सुनंदा श्राविका के घर जा पहुंचे और धर्मलाभ कहा। धर्मलाभ की आवाज सुन कर, पहचान कर, सुनंदा बाहर आयी और धनगिरी म. सा. को कहने लगी कि, “यह लो अपना पुत्र, इसका रोना बँध ही नहीं होता है, और मुझे इसने हैरान कर के रख दिया है। मुझसे यह दुःख अब सहन नहीं हो पा रहा है। यह पुत्र अब मुझे काल के सामान लगने लगा है इसलिए अब आप ही कृपा कर के इसे अपने साथ ले जाईये।”
यह सुन कर धनगिरी म. सा. को अपने गुरु महाराज की बात याद आयी कि, क्यों ज्ञानी गुरु ने उनसे आज ऐसा कहा था की सचित अचित का आज ख़याल नहीं करना ।
धनगिरी म. सा. ने सुनंदा से कहा, “ठीक है जैसे आपकी इच्छा।” लेकिन बाद में आप पछताना नहीं। हमें देने के बाद, पुत्र आपको वापिस नहीं मिल पायेगा।” यह कह कर, बालक को अपनी झोली पसार कर लिये और ले कर, वह अपने गुरु महाराज के पास लौट आये।
👉🏻 गुरु महाराज ने धनगिरी म. सा. को, बच्चे के वजन से, उस तरफ, थोड़ा झुक गए देख, बच्चे का नाम “वज्रकुमार” रखा।
जैसे ही गुरु महाराज ने, बालक को अपने गोद में ले कर, उसकी तरफ देखने लगे, तो बच्चा रोना भूल कर खिलखिलाकर हंसने लगा। बच्चे का रुदन कहाँ खो गया, मानो, बच्चा कभी रोया ही नहीं था।
बच्चे की देखभाल करने के लिए गुरु महाराज ने, बच्चे को साध्वीजी महाराजो को सौंपा, जहाँ वह सब भी, श्राविकाओं के माध्यम से, बालक की देखभाल करते थे। धावन के लिए भी व्यवस्था कर के बालक को पालना, झारी रखा। सुनंदा भी कभी कभी कोई प्रसंग पर अलग अलग बहाने से बालक को दूध पीला जाती थी।
👉🏻 उपाश्रय में साध्वीजी महाराज ११ अंग पढ़ते थे, जहाँ पर पालने में ही वज्रकुमार को भी, ११ अंग मुखपाठ याद रह गया। वज्रकुमार तीन वर्ष के हुए और वह दूसरे बच्चों के साथ, धर्म के उपकरणों के साथ, खिलौना जैसे, खेलने लगे ।
तीन वर्ष के वज्रकुमार को ले कर, एक बार धनगिरी महाराज साहेब जब फिर से विहार करते करते फिर से उसी गांव में आ पहुंचे जहाँ सुनंदा रहती थी।
सुनंदा को अपने पुत्र को तब अपने से दूर कर देने पर पछतावा हुआ, तब, जब उसने देखा की, अब तो उनका पुत्र खिलखिलाकर हंस रहा है, सब के साथ खेल रहा है, ११ अंग जिनको, मुखपाठ है।
सुनंदा ने अपने पुत्र के वापसी की मांग रखी, जिस के लिए, धनगिरी म सा ने मना कर दिया। सुनंदा का पुत्र लौटाने का आग्रह इतना बढ़ गया, की, संघ को बिच में पड़ा परन्तु, फिर भी सुनंदा ने, अपने आग्रह को नहीं छोड़ा।
👉🏻 सुनंदा ने बात को, राजकचहरी तक पहुंचाई और राजा के समक्ष न्याय करने की मांग रखी। धनगिरी म सा भी राजसभा में आये, तब, राजा ने एक उपाय खोज निकाला और कहा कि, यह बालक जिसको चाहेगा, उसीको सौंपा जायेगा। यह शर्त दोनों ने स्वीकारी।
👉🏻 माता ने मनोहर खिलोने दिखा कर और स्नेहभरी बातों से, वज्रकुमार को प्रलोभन दिया। संपूर्ण मातृशक्ति का, उन्होंने वज्रकुमार को, अपने मातृत्व की तरफ आकर्षित करने के लिए उपयोग किया, परन्तु, सब प्रयोग निष्फल हुए ।
तब, श्री धनगिरी म. सा. ने मात्र ओघा (रजोहरण) को जरा से आगे बढ़ाया और वज्रकुमार ने तुरंत उसे उठा लिया और आनंदित हो कर नृत्य करने लगे और जा कर, अपने पिता की गोद में बैठ गए।
👑 बस, राजा ने भी, अपना न्याय सब के समक्ष सुना दिया।
🔸 यह सब देख कर सुनंदा के मन में भी वैराग्य जागृत हुआ और श्री सिंहगिरि म सा के हस्तक उन्होंने भी दीक्षा ली। गुरुमहाराज ने ६ वर्ष के, जन्म के वैरागी, वज्रकुमार को भी दीक्षा दी।
अवन्तिनगरी की और विहार करते समय, वज्रस्वामी के पूर्वभव के मित्र जृम्भक देव ने कई परीक्षा ली, परन्तु, वज्रस्वामी के “संयमानुराग” और “सात्विकता” को देख कर, खुश हो कर वज्रस्वामी को “”””वैक्रिय लब्धी और आकाशगामिनी विद्याएं”””” दी।
तब, वज्रस्वामी सब उपधियों को समक्ष रख कर, वांचना देने बैठे, तब, अपने गुरु महाराज पधारे जान कर, बाहर आ कर, विनयपूर्वक, गुरु महाराज के पाव धोएं। गुरुमहाराज ने, वज्रस्वामी की शक्तियों को समझ कर, उन्हें वांचना देने को कह कर, दशानपुर के लिये, विहार किये। सभी साधु को उनकी वांचना से अत्यंत ही आनंद हुआ।
इस बिच, गुरु महाराज को वज्रस्वामी की तेजस्विता को समझ कर, उस काल के १० पूर्वधर, श्री भद्रगुप्ताचार्य के पास, वज्रस्वामी को, ज्ञान पाने, अवन्ति नगर भेजा, जहाँ, वज्रस्वामी ने उनके पास १० पूर्व का अभ्यास किया। जब वहां से वह वापिस लौटे, तब उनके पूर्व भव के मित्र, जृम्भक देव ने महोत्सव किया।
👉🏻 गुरु महाराज ने तब उन्हें आचार्य की पदवी दी और फिर, गुरु महाराज़, स्वर्ग सिधाए।
५०० साधू के समुदाय के साथ, वज्र जैसे अंगो के स्वामी ऐसे १० पूर्वधारी वज्रस्वामी देशोदेश विहार करने लगे।
वैरागी पिता के उत्तम बीज सांगोपांग स्त्रीत्वसम्पन्न माता के उदर से जन्मे, बालब्रह्मचारी वज्रस्वामी के प्रभाव की गाथा, चारो और फ़ैल चुकी थी।
पाटलिपुत्र में धनशेठ की पुत्री रुकमणी भी इस कीर्ति को सुन कर, बिना देखे ही, मन ही मन वज्रस्वामी को ही अपना पति मान चुकी थी कि, “दूसरे कोई भी पुरुष अब मेरा ह्रदय आकर्षी नहीं पायेगा और पति बनेंगे तो यही नहीं तो संयम ही मेरा आधार है”।
इतने में विहार करते हुए वज्रस्वामी पाटलिपुत्र आये। उनके प्रभाव की बातें सुन कर, राजा अपनी पटरानियों के साथ उनके वंदन हेतु आये। इधर रुक्मणि के, साढ़े तीन करोड़ रोम, रोमांचित एवं पुलकित हो गए जब उसने वज्रस्वामी को, आये हुए सुना। वह अपने पिता के पास जा कार बोली, “पूज्य पिताश्री, जिसको मैंने मन ही मन अपना पति मान लिया है, वह यहाँ पधारे है, उनके बिना मरण ही शरण है। लोगों के मुँह से आचार्य श्री जी के रूप-सौभाग्य की कथा सुन कर, प्रभावित हुए पिता भी, पुत्री का धन्यवाद करने लगे, की, उसने ऐसा महापुरुष का चुनाव किया।
शेठ अपनी पुत्री को ले कर, वज्रस्वामी के पास पहुंचे और विनंती की, “हे कृपानिधान, अशरण मरण। मेरी पुत्री आपको मन ही मन अपना पति मान चुकी है, आप उसका और १ करोड़ रत्नो का स्वीकार करके कृतार्थ करें वर्ना मरण ही उसका शरण है।”
👉🏻 यह सुन कर, बर्फ की तरफ ठंडा लेकिन उतना ही कठोर ह्रदय वाले, वज्रस्वामी का ह्रदय, और भी कठोर बना। और तब, वज्रस्वामी ने रुक्मणि को उपदेश दे कर, प्रतिबोधित किया, इस पर रुक्मणि को ही पिघलना पड़ा और उनका मोहज्वर चला गया।
🔸 वैराग्य पा कर, रुक्मणि ने भी, व्रत-संयम का स्वीकार किया।
यहाँ से फिर उत्तर की तरफ विहार किये और उस वक़्त १२ साल का दुकाल पड़ा। आचार्यश्री वज्रस्वामी, लब्धि से, संघ को चर्मरत्न महापट्ट पर बैठाकर, महापुरनगर ले आये।
वहां का राजा, बौद्ध था। जैनों को, पर्युषण के समय कोई फूल नहीं मिलें, ऐसा उन्होंने प्रतिबन्ध किया।
सब जैन ने यह बात आचार्य श्री जी को बतायी। तब आचार्य श्री जी ने आकाशगामिनी विद्या के द्वारा, माहेश्वरी उपवन से, जो की श्री धनगिरी म सा के संसारी मित्र, तड़ित मार्वी का उपवन था, वहां से, २१ करोड़ पुष्प लिए, वहां से चुल्ल हिमवंत पर्वत पर शाश्वत जिनप्रतिमाओं के दर्शन कर के, वहां की देवी के पास से भी फूल लिए, और वापिस लौटे। पर्युषण खूब धाम धूम से सम्पन्न हुआ। बौद्ध भी झुक गए और राजा भी तब जैन बना।
इस प्रसंग के बाद वज्रस्वामी ने आर्यरक्षितजी को कुछ न्यून १० पूर्व का अभ्यास कराया।
एक बार वज्रस्वामी दक्षिण देश में विहार कर रहे थे, वहां, उन्हें श्लेष्म की पीड़ा हुई और तब बाकी साधू के आग्रह से वह दुविहार का पच्चक्खाण करने लगे। एक बार एक सूंठ की कणी को अपने कान पर रख कर वह भूल गए थे, जो की प्रतिक्रमण करते समय मुँहपत्ती पलोते समय वह कणी निचे गिरी तब आचार्य श्री जी को ग्लानि हुई की, मैंने कितना प्रमाद किया , अब मेरी आयु अल्प है, तो मुझे अनशन करना चाहिए, और यह सोच कर उन्होंने अपने सभी शिष्यों को, वज्रसेनमुनि के साथ विहार में भेजा। अन्न ना मिलने पर, वज्रसेनमुनि ने विद्या की मदद से, अन्न के उत्पादन का सुझाव रखा, जो बाकी सब साधू को उपयुक्त न लगने पर वज्रस्वामी के पास लौट आये। परन्तु श्री आचार्यजी तो अनशन करने के लिए एक क्षुल्लक साधू को छोड़ कर, पर्वत पर चले गए। क्षुल्लक साधू भी, उनके साथ अनशन करने के भाव से वहां गए पर पर्वत पर चढ़ कर, गुरु की आराधना में विघ्न न आये, इसलिए तलेटी में रह कर ही, उन्होंने भी अनशन किया और वह कालधर्म पा कर, स्वर्ग सिधाए। देव जब महोत्सव करने आये, तब गुरु ने उपयोग से, बात को समझा। उस पर्वत पर कोई मिथ्यात्वी देव था, जो आचार्य श्री वज्रस्वामी को परेशान करने लगा था परन्तु, आचार्य श्री जी, चलित नहीं हुए। वह क्षेत्र देवता की अप्रीती को, वजह समझ कर, अन्यत्र विहार किये और वहां क्षेत्रदेवता का कायोत्सर्ग किया और फिर अनशन कर के, वी. नि. संवत ५८४ में स्वर्ग सिधाए। इंद्र ने वहां आ कर तब वंदन किया, और तीर्थ की स्थापना की।
सार
👉🏻 आचार्य श्री वज्रस्वामी के जीवन प्रसंगों से हमें सिख अवश्य लेनी चाहिए की हम सब को प्रभु आज्ञा से विचलित हुए बिना, “”दृढ़ता और संपूर्ण”” से एक बार लिए हुए संकल्प को पालना चाहिए। छोटी उम्र में ही दीक्षा का संकल्प ले चुके वज्रकुमार, बाल्यावस्था में भी माता के प्रलोभन से नहीं पिघले तो हम लोग तो आयु के समझदार पड़ाव पर आ कर भी जो ये ना समझ पाए, तो हम आगे क्या जैनत्व का पालन कर पाएंगे ?
👉🏻 रुक्मणि और रत्नो के प्रलोभन पाने पर भी वह, वज्र की तरह कठोर बने रहे, और उन्होंने भटकी हुई रुक्मणि को भी प्रतिबोधित कर के, संयम-साथी बनाया, ऐसे ही हमें भी, अपने जीवन में सांसारिक प्रलोभन पाने पर, वज्र की तरह कठोर बने रहना चाहिए, तभी हमारे जैनत्व की रक्षा हम कर पाएंगे।
અવંતિ પ્રદેશની તુમ્બવન નગરીના નિવાસી ધનગિરિ અને સુનંદાનાં લગ્ન તો થયાં, કિન્તુ સુનંદા પતિની આત્મકલ્યાણના સાધનાપથની ]ંખનાને સુપેરે જાણતી હતી. સુનંદાને ગર્ભસૂચક શુભસ્વપ્ન આવતાં ધનગિરિએ કહ્યું કે તને થોડા જ સમયમાં પુત્રનો આધાર સાંપડશે, તો હવે તારી અનુમતિ હોય તો મારી દીક્ષા લઈને આત્મકલ્યાણ સાધવાની ભાવના છે. આદર્શ આર્યનારીની પેઠે સુનંદાએ ધનગિરિને અનુમતિ આપી. વી.િન.સં. 496માં સુનંદાએ પુત્રને જન્મ આપ્યો. આ સમયે સુનંદાની સહિયરો અને પરિવારજનોએ હર્ષોલ્લાસભેર પુત્રજન્મની ઉજવણી કરી. આનંદના આ અવસરે કોઈએ એમ કહ્યું કે જો આ બાળકના પિતા ધનગિરિએ દીક્ષા લીધી ન હોત અને અહીં હાજર હોત, તો આ જન્મોત્સવની ઉજવણી ઓર દીપી ઊઠત. આ વાક્યો નવજાત શિશુના કાને અથડાતાં જ એને પૂર્વજન્મના સંસ્કારને લીધે જાતિસ્મરણ જ્ઞાન થયું. બાળકે મનોમન વિચાર્ય઼ું કે માતા વાત્સલ્યથી વીંટાળી દે નહીં તે માટે એણે તત્કાળ રડવાનું શરૂ કર્ય઼ું. પૂરા છ મહિના સુધી રાત-િદવસના એના રુદનથી માતા સુનંદા હેરાનપરેશાન થઈ ગઈ અને એક દિવસ અકળાઈને મુનિ ધનગિરિને આ સતત રડતો બાળક જ વહોરાવી દીધો. બાળક મુનિને પધરાવતાં જ શાંત થઈ ગયો. મુનિ ધનગિરિ ]ાેળીમાં લઈને ગુરુ આર્યસિંહગિરિ પાસે આવ્યા ત્યારે ગુરુએ વજનદાર ]ાેળીને જોઈને કહ્યું કે આ તો વજ્ર મસાન અત્યંત ભારયુક્ત છે. ગુરુએ ]ાેળી ખોલીને જોયું તો એમાંથી બાળક નીકળ્યો. ગુરુએ એનું નામ `વજ્ર’ રાખ્યું. આ બાળકનો સાધ્વીજી અને શ્રાવિકાઓ દ્વારા ઉછેર થતો ગયો. ત્રણેક વર્ષ બાદ પુત્ર પ્રત્યેનું વાત્સલ્ય પુનઃ જાગૃત થતાં સુનંદાએ પુત્રની માગણી કરી. વાત છેક રાજદરબાર સુધી પહોંચી. છેવટે નIાળ થયું કે બાળક જેના પ્રત્યે આકર્ષિત થાય તેની પાસે એને રાખવો. સુનંદાએ ભાતભાતનાં સુંદર રમકડાં, મધુર સ્વાદિષ્ટ મીઠાઈઓ અને હાથ લંબાવીને વાત્સલ્યભરી ચેષ્ટાઓ દ્વારા બાળકને પોતાની પાસે બોલાવ્યો, પરંતુ બાળક એક તસુ પણ હાલ્યો-ચાલ્યો નહીં. એ પછી બાળકના પિતા ધનગિરિએ પોતાનું રજોહરણ ઉઠાવીને કહ્યું કે જો તું તત્ત્વને જાણનારો હોય અને સંયમને ગ્રહણ કરવા માટે ઉત્સુક હોય તો કર્મબંધનને ફગાવી દેવા માટે આ રજોહરણનો સ્વીકાર કર. મુનિ ધનગિરિનું વાક્ય પૂરું થાય એ પહેલાં બાળક વજ્ર પોતાના સ્થાનથી ફરીને એમના ખોળામાં બેસી ગયો અને હાથમાં રજોહરણ લઈને ચામરની માફક ઢોળવા લાગ્યો. સાધુતા અને સામર્થ્યની પાવન મૂર્તિ સમા આચાર્ય વજ્રસ્વામી વીર નિ. સં. 584 માં કાલધર્મ પામ્યા. આવા મહાના આચાર્યના સ્વર્ગગમનની સાથે જ દસમો પૂર્વ અને ચતુર્થ સંહનનનો વિચ્છેદ થઈ ગયો. આવા આચાર્યની સ્મૃતિને ચિરસ્થાયી બનાવવા માટે એમના સ્વર્ગગમન પછી વજજીશાખાની સ્થાપના થઈ.
Shri Vajra Swami
He was as if a born Yogi. His life was a triple meeting point of keeping of glorious monk hood, devotion and recognition of religion. The great thing about him was, immediately where he was born, he knew what he was in his previous birth. From the very first day of his life, he was a loof from the worldly matters and he remained a pure monk for long 80 years. Sunanda was married to Dhangiri of Tumvan city of Avantidesh. Sunanda was very well aware of her husband’s earnest desire for only self development on spiritual front. When Sunanda saw the dreams indicating the birth of a great soul, Dhangiri told her that now she is going to gave a worthy son, he should be allowed to walk on the path of renunciation. Sunanda also like an ideal Arya wife, alloved the husband to go on that path. In Vikram Samvat 496, Sunanda gave birth to a child. The birth of child was celebrated with great joy by Sunanda and the family. Somebody at that time commented that had Dhangiri not renounced the world, he would have been here to celebrate the birth of his son, and that would have been a great event.
The new born child heard this sentence. He realised it and immediately he was remind of his past life. He started crying endlessly lest the mother would with him by her motherly love and affection. He cried for six months day and night continuously and the mother was very much perturbed. She was so upset that one day she gave away the child to the monk Dhangiri. The child, immediately with the father became very quiet after 6 months continuous weeping. The monk Dhangiri came along with the child to his Guru Arya Sinhgiri. The guru saw that the bag of the alms looked very heavy and spoke that oh, the bag is very heavy like a Vajra. Guru then opened the bag and saw that there was a child inside. Guru gave him the name “Vajra” and he was looked after by the monks and the nuns, and the householder.
After 3 years, Sunanda remember her Son, and wanted it back. The mother was referred to the King’s court. It was then decided that the child should be handed over to one, to whom the child gets himself attracted. Sunanda brought with her attractive toys, tasteful sweets etc. and with great love moved towards the child showing great affection to him. But the child did not move an inch from his place. Then the monk Dhangiri took his Rajoharan (an instrument of Jayna and essential for the Jain Monks), and held it to the child and said, “If you know the real substance of life, if you are willing to rennunciate the world, then please hold this Rajoharan to wipe off your Karmas.” Even when he had not completed his sentence, the child moved to him, went to him sat in his lap and took the ‘Rajoharan’ and moved it like fen. The entire court of the king was stunned. Sunanda was in deep thought. Her husband, brother and a son now had renunciated the world. Now she also decided to follow the suit.
Balmuni, the child monk, Vajra Swami was moving in a jungle. The Gods, thought of providing him food by some mysterious act. But the child monk Vajra Swami realised this mystery and refused to take the food. The gods, then as a token of their appreciation, provided him with two great Vidhyas – Vaikriya Labdhi and Akash Gamini (to move in the sky). Once when there was an acute famine in North India, Muni Vajra Swami took the whole ‘Sangh’ to Maheswari Puri with the help of this Vidhyas. Once when flowers were not at available here, Vajra Swami, through the help of this Vidhyas brought twenty lakhs of flowers in aircraft.
Acharya Vajra Swami was holy symbol of monk hood and strength. He passed away in Vikram Samvat 584. The Tenth Poorva and forty Sanhanan now got separated from us, with his sad demise. After his death, he is now remembered by the branch in his name Vajjishakha.