अरिहंत वंदनावलि | Arihant Vandanavali
(हरिगीत छंद)
जे चौद महा स्वप्नो थकी, निज माता हरभावता,
वली गर्भमांही ज्ञानत्रयने, गोपवी अवधारता,
ने जन्मतां पहेली ज चोसठ, इन्द्रो जेने वंदता,
एवा प्रभु अरिहंत ने, पंचांग भावे हूं नं. १
महायोगना साम्राज्य मां, के गर्भ मां उल्लास,
ने जन्मता त्रण लोकमां, महासूर्य सम प्रकाशता,
जे जन्म कल्याणक वडे, सहु जीवन सुख अर्पता. एवा. २
छप्पन्न दिग्कुमारी तणी, सेवा सुभावे पामता,
देवेन्द्र करसंपुट महीं, धारी जगत हरखावता,
मेरुशिखर सिंहासने, के नाथ जगना शोभता. एवा. ३
कुसुमांजलिथी सुर-असुर जे, भव्य जिनने पूजा,
क्षीरोदधिना न्हवणजलथी, देव जेने सिंचता,
वळी देवदुंदुभि नाद गजवी, देवताओं रीझता. एवा. ४
मघमघ थता गोशीर्ष, चंदनथी विलेपन पामता,
देवेंद्र देवी पुष्प, माळा गले और पता,
कुंडलकडां मणिमय चमकतां, हार मुकुटे शोभता. एवा. ५
ने श्रेष्ठ वेणु मोरली, वीणा मृदंग तणा ध्वनी,
वाजंत्र ताले नृत्य करती, किन्नरीओ स्वर्गनी,
हर्षे भरी देवांगनाओ, नमन करती लळी लळी. एव. ६
जयनाद करता देवताओं, हर्षित अत्री मां,
पधरामणी करता जनेताना महा प्रासादमां,
जे इन्द्र पूरित वर सुधाने, चूसता अंगुष्ठ मां. एवा. ७
आहार ने निहार जेना, छे अगोचर चक्षु थी,
प्रस्वेद व्याधि मेल जेना, अंगने स्पर्श नहीं.
स्वर्धेन दुग्धसमा रुधिर ने, मांस जेना तना नहीं, एवा. ८
मंदार पारिजात सौरभ, श्वास ने उच्छवास में,
ने छत्रचामर जयपताका, स्तंभ तव कर पादमां.
पूरा सहस्र विशेष अष्टक, लक्षणो ज्यां शोभता. एवा. ९
देवांगनाओ पांच आज्ञा, इंद्र ने सन्मानती,
पांचे बनी धात्री दिले, कृतकृत्यता अनुभावती,
वळी बालक्रीडा देवगणना, कुंवरो संगे थती. एवा. १०
जे बाल्यकाळमां प्रौढ ज्ञाने, मुग्ध करतां लोकने,
सोळे कळा विज्ञान केरा, सारने अवधारणा,
त्रणलोकमां विस्मय समा, गुणरुप यौवन युक्त जे. एवा. ११
मैथुन परिषहथी रहित जे, नंदता निजभावमां,
ने भोगकर्म निवारवा, विवाह कंकण धारता,
ने ब्रह्मचर्य तणो जगव्यो, नाद जेणे विश्वमां. एवा. १२
मूर्छा नथी पाम्या मनोज, पांच भेदे भोगमां,
उत्कृष्ट जेनी राज्यनीतिथी प्रजा सुखचे नमां,
वळी शुद्ध अध्यवसायथी जे लीन छे निजभावमां. एवा. १३
पाम्या स्वयं बुद्धपद जे, सहजवर विरागवंत,
ने देव लोकांतिक घणी, भक्ति थकी करता नमन,
जेने नमी कृतार्थ बनता, चार गति जीवनी. एवं. १४
आवो पधारो इष्ट वस्तु, पामवा नर नारी,
ए घोषणा थी अर्पता, सांवत्सरिक महादानने,
ने छेदता दारिद्र्य सौनु, दानना महाकल्प थी. एवा. १५
दीक्षा तणो अभिषेक जी ने, योजता इन्द्रो मळी.
शिबिका स्वरुप विमानमां, विराजता भगवंतश्री,
अशोक पुन्नग तिलक चंपक वृक्ष शोभित वनमहीन. एवा. १६
श्री वज्रधर इन्द्र रचे ला, भव्य आसन उपरे,
बेसी अलंकार त्यजे, दीक्षा समय भगवंत जे,
जे पंच मुष्टि लोच करता, केश विभु निज कर वडे. एवा. १७
लोकाग्रगत भगवंत सर्व, सिद्धांत वंदन करे,
सावद्य सघळा पाप योग ना करे पचक खाणने.
जे ज्ञान-दर्शनने महाचारित्र रत्नत्रयी ग्रहे. एवा. १८
निर्मल विपुलमति मनःपर्यवज्ञान सहेजे देवता,
जे पंचसमिति गुप्तित्रयनी, रयणमाला धारता,
दशभेदथी जे श्रमण सुंदर धर्मनुं पालन करे. एवा. १९
पुष्कर कमल पत्र की भांति नहीं ले पायजे,
ने जीवनी माफक अप्रतिहत, वरगतिए विचार,
आकाश नी जेम निरालंबन, गुण थकी जे ओपता. एवा. २०
ने अस्खलित वायु, समूहनी जेम जे निबंध छे,
संगो पिता अंगोपांग जे ना, गुप्त इन्द्रिय छे.
निस्संगता जे विहंगशी, जेनो अमूलख गुण छे. एवा. २१
खड्गीतणा वरशृंग जेवा, भावथी एकाकी जे,
भारंडपंखी सारीखा, गुणवान अने प्रमत्त छे,
व्रतभार वहेता वरवृषभनी, जेम जेह समर्थ छे. एवा. २२
कैंसर समा शूरवीर जे छ, सिंहसम निर्भय वली,
गंभीरता सागर समी, जेना हृदयने छे वळी,
जेना स्वभावे सौम्यता छे, पूर्णिमा चंद्रनी. एवं. २३
आकाश भूषण सूर्य जेवा, देवता तपते जथी.
वळी पूरता दिगंतने, करुणा उपेक्षा मैत्रीथी,
हरखावता जे विश्वने, मुदितातणा संदेशथी. एवा. २५
जे शरद ऋतु ना जल सीमा, निर्मल मनोभावो वडे.
उपकार काज विहार करता, जे विभिन्न स्थलो विषे.
जेनी सहनशक्ति समीपे, पृथ्वी पण झांखी पडे. एवा. २५
बहु पुण्यनो ज्यां उदय छे एवा भविकना द्वारने,
पावन करे भगवान निज तप, छठट- अठ्ठम पारणे,
स्वीकारता आहार बेंतालीस दोष विहीन जे. एवा. २६
उपवास मासक्षमण समा, तप आकरा तपता विभु,
बावीस परिषहने सहंता, खूब जे अदभुत विभु. एवा. २७
बाह्य अभ्यंतर बधा, परिग्रहथकी जे मुक्त छे,
प्रतिमा वहन वळी शुक्लध्याने, जे सदाय निमग्न छे,
जे क्षपकश्रेणि प्राप्त करता, मोहमल्ल विदारीने. एवा. २८
जे पूर्ण केवलज्ञान, लो कालो कने अजवाळतुं,
जेना महासामर्थ्य केरो, पार को नव पामतुं,
ए प्राप्त जेणे चार घाती, कर्म छेदा क्यु. एवा. २९
जे रजत सोना ने अनुपम, रत्नना त्रण गढमहीं,
सुवर्ण ना नव पद्ममां, पदकमलने स्थापन करी,
चारे दिशा मुख चार, चार सिंहासने जे शोभता. एवा. ३०
ज्यां छत्र पंदर उज्ज्वलां, शोभी रह्या शिर उपरे,
ने देव देवी रत्न चामर, वीझंता करद्वय वड,
द्वादश गुणा व देववृक्ष, अशोकथी य पूजाय छे. एवा. ३१
महासूर्य सम तेजस्वी शो, धर्मचक्र समीप माँ,
भामंडले प्रभुपीठथी, आभा प्रसारी दिगंतरा,
चोर जान प्रमाण पुष्य, अर्घ्य जिनने अर्पता. एवा. ३२
ज्या देवदुंदुभि घोष गजवे, घोषणा त्रण ली मां,
त्रिभवन तणा स्वामीतणी, सहुए सुणो शुभ देशना,
प्रतिबोध करता देव, मानव ने वाली तिर्यंच, एवं. ३३
ज्यां भव्य जीवोनां अविकसित खीलतां प्रज्ञाकमल,
भगवंतवाणी दिव्य स्पर्श, दूरे थता मिथ्या वमळ,
ने देव दानव भव्य मानव, झंखता जेनुं शरण. एवा. ३४
जे बीजभूत गणाय छे, त्रण पद चतुर्दश पूर्वना,
उपन्नेइ वा विगमेइ वा, धुवेइ वा महातत्त्वना,
ए दानं सुश्रुत ज्ञान,, देनार त्रण जगनाथ जे. एवा. ३५
जे चौदपूर्वो ना रचे छे, सूत्र सुंदर सार्थ जे,
ते शिष्यगणने स्थापता, गणधर पदे जगन्नाथ जे,
खोले खजानो गूढ मानव, जातना हित कारणे. एवा. ३६
जे धर्म तीर्थंकर चतुर्विध, संघ संस्थापन करे,
महातीर्थ सम ए संघने, सुर असुर सहु वंदन करे,
ने सर्व जीवो भूत, प्राणी, सत्त्वशुं करुणा धरे. एवा. ३७
जे ने नमें छे इन्द्र वासुदेव ने बलभद्र सिंह,
जेना चरणने चक्रवर्ती, पूजा भावे बहु,
जेणे अनुत्तर विमानवासी, देवना संशय हण्या. एवा. ३८
जे छे प्रकाश साहू पदार्थों, जड तथा चैतन्य,
वरशुक्ल लेश्या तेरे में, गुणस्थान के परमातमा,
जे अंत आयुष्य कर्म, करता परम उपकारथी. एवा. ३९
लोकाग्र भागात पहुंचाने, योग्य क्षेत्री जे बने,
ने सिद्धना सुख अर्पती, अंतिम तपस्या जे करे,
जे चौदह गुणस्थान के, स्थिर प्राप्त शैलेशीकरण. एवं. ४०
हर्षे भरेला देवनिर्मित, अंतिमें समवसरणे,
जे शोभता अरिहंत परमात्मा जगतघर आंगणे,
जे नामना संस्मरणथी, विखराय वादळ दुःखना. एवा. ४१
जे कर्मनो संयोग वळगेलो अनादि कालथी,
तेथी थया जे मुक्त पूरण सर्वथा सद्भावथी, एवा.
रममाण जे निजस्वरुपमां ते, सर्व जगतनुं हित करे, एवा. ४२
जे नाथ औदारिक वळी, तैजस तथा कार्मण तनु,
ए सर्वने छोडी अहीं, पाम्या परमपद शाश्वतुं,
जे रागद्वेष जले भरा, संसार सागरने तर्या. एका. ४३
शैलेशी करणे भाग त्रीजे, शरीरना ओछा करी,
प्रदेश जीवन घन करी, वळ पूर्व ध्यान प्रयोग थी,
धनुष्यथी छूटेल बाण, तणी परे शिवगति लही. एवा. ४४
निर्विघ्न स्थिर ने अचल अक्षय, सिद्धिगति ए नामनो,
छे स्थान अव्याबाध ज्यांथी, नही पुनः फरवापणुं,
ए स्थानने पाम्या अनंता, ने वळी जे पामशे. एवा. ४५
आ स्तोत्रने प्राकृतगिरामां, वर्णव्यु भक्ति बळे,
अज्ञात ने प्राचीन महामना, को मुनीश्वर बहुश्रुते,
पद पद मही जेना महासामर्थ्यनो महिमा मळे, एवा. ४६
जे नमस्कार स्वाध्याय मां, प्रेक्षी हृदय गदगद बनूं,
श्रीचंद्र नाच्यो ग्रंथ लइ, महाभावनुं शरणुं मळ्यु,
कीधी करावी अल्प भक्ति, होंशनुं तरणुं फळ्युं एवा. ४७
जेना गुणों सिंधुना बे बिन्दु पण जाणुं नहीं,
पण एक श्रद्धा दिलमहीं के, नाथ शाम को छे नहीं,
जेना सहारे करोड़ो तरीया, मुक्ति मुज निश्चय सही. एवा. ४८
जेनाथ छे त्रण भुवनना, करुणा जगे जेनी वहे,
जेना प्रभाव विश्वमां, सद्भावनी सरणी वहे,
आपे वचन श्री चंद्र जगने, ए ज निश्चय तारशे,
एवा प्रभु अरिहंतने, पंचांग भावे हुं नमो . एवा. ४९