हांरे निरखी निरखी तुज बिबने रे,
हरखित हुयें मुज सुपार्श्व सोहामणा रे… (२ वार)
निर्विकारता नयनामां ने,
मुखडुं सदा सुप्रसन्न; सुपार्श्व सोहामणा रे… (२ वार)
भाव अवस्था सांभरे, प्रातिहारजनी शोभा;
कोडि गमे देवा सेवा रे, करतां मूकी लोभ हांरे निरखी…
लोका-लोकना सवि भावा, प्रतिभासे परतक्ष रे;
तोहे न राचे नवि रुसें रे, नवि अविरतिनो पक्ष रे हांरे निरखी…
हास्य न रति अरति नहीं, नहीं भय शोक दुगंछ रे;
नही कंदर्प कदर्थना रे, नहीं भय अंतरायनो संच हांरे निरखी…
मोह मिथ्यात्व निद्रा गई, नाठां दोष अढार रे;
चोत्रीश अतिशय राजतो रे, मूलातिशय चार रे हांरे निरखी…
पांत्रीश वाणी गुणे करी, देतो भवि उपदेश रे;
ईम तज बिंबे ताहरो रे, भेदनो नहि लवलेश हांरे निरखी…
रुपथी प्रभु गुण सांभरे रे, ध्यान रूपस्थ विचार रे;
मानविजय वाचक वदे रे, जिन प्रतिमा जयकार हांरे निरखी…