जे साधना प्रभु ते करी, ते साधना प्रभु हुं करूं,
जे साधनो तुजने मळ्या, ते साधनो मुजने मळे;
जे साध्य हतुं प्रभु ताहरूं, ते साध्य रहो प्रभु माहरूं,
जे सिद्धि प्रभु तुजने मळी, ते सिद्धि प्रभु मुजने मळे.||१||
तुज भक्तिमां लयलीन बनवु, एक छे मुज कामना,
आ जीवननी रंगोळीमां, रंगो पूर्या तुज नामना;
हे मित ! तारी प्रीत तारी, झंखना दिलमा रहे,
वीतराग तुज आराधनामां, क्षण क्षण मारी वीते. ||२||
मळजो मने जनमो जनम बस, आपनी संगत प्रभु,
रेलाय मारा जीवनमा, तुज भक्तिनी रंगत प्रभु;
तुज स्मरण भीनो वायरो, मुज आसपास वहो सदा,
मुज अंगे अंगे नाथ तुज, गुणमय सुवास वहो सदा. ||३||
ठगवा विभु आ विश्वने, वैराग्यनां रंगो धर्चा,
ने धर्मनो उपदेश रंजन, लोकने करवा कर्या ,
विद्या भण्यो हुं वाद माटे, केटली कथनी कहुं ?
साधु थईने हुं बहारथी, दांभिक अंदरथी रहूं. ||४||
शास्त्रो करे रुप वर्णनां, प्रभुरुप जोवा ना मळे,
वाणी तणां सुगुणो सुण्यां, प्रभु वाणी सुणवा ना मळे;
ऎैश्वर्य गुणने ज्ञान संपद, पेखवा विलसी रह्यं,
प्रभुने निरखवा भाव निक्षेपे हृदय तलसी रह्यं. ||५||
सुख दुःख सकळ विसरुं विभु, एवी मळो भक्ति मने,
सौने करूं शासन रसी, एवी मळो शक्ति मने;
संक्लेश अगन बुजावती, मळजो अभिव्यक्ति मने,
मनने प्रसन् बनावती, मळजो अनासक्ति मने. ||६||
तुज आंखनी जे सौम्यता, ते जोई सहु लोचन ठरे,
तुज देहनी देदीप्यताथी, देह सवि शीतल बने;
तुज मुखनी प्रसन्ताथी, मन सहुं हर्षित बने,
तेथी तमारां दर्शने, अम मन अति विकसित बने. ||७||
मुख मलकतुं लोचन चळकतां, नूर नीखरे बदन पर,
झलके अपार प्रसन्ता, तुज प्रेम भीनां वदन पर;
कामण करे छे रुप तारूं, नाथ! मारां नयन पर,
प्रभु ! तुं छवायो नयन, मन पर, मनन पर, वचन पर. ||८||
थाकयां हता ने रथ मळ्यो, तरस्यां हता ने नदी मळी !
तडके तथ्या ने तरु मळ्यां, रोगी हता औषधि मळी !
रस्तो भूल्या’ता प्रभु ! अमे, ने मार्गदर्शक सांपड्यो !
अंधकारमां दीवडो मळ्यों, भवमां भटकतां तु मळ्यो ! ||९||
कोई गाणे प्यारो मने ,कोई गणे सारो मने,
कोई गणे खोटो मने ,कोई गणे खारो मने;
कंई हर्ष शोक नथी परंतु, झंखना बस एक छे,
हे नाथ! कही दो एटलुं के, “वत्स ! तुं मारो ज छे !”. ॥१०॥
जे तुं कहे ते पूर्व ने, जे तुं कहे ते पश्चिम हवे !
मारे कशुं न विचारवुं, तारूं वचन अंतिम हवे !
बस एटला माटे ज तो, मुजने गमे छे स्वामी ! तु,
तुं एक वीतरागी जगतमां, एक अंतर्यामी तुं ! ॥११॥
आळोटवा नहि दे प्रशंसाना कीचडमां तुं मने,
करमाय नहि एवुं प्रभु !, श्रद्धानुं पुष्प धरूं तने;
जो आवे हुमलो मोहनो, तुज फरज छे संभाळजो,
भीना रहे नयनो सदा, एवी प्रसादी आपजो. ॥ १२॥
तने रामनुं कोई नाम दे, हनुमान तारो हुं बनुं,
तने कृष्ण जो कोई कहे, स्वामी ! पार्थ तारो हुं बनुं;
अनंत रूपे तने भजुं, हैये छतां एक झंखना,
क्यारे तुं मारी माँ बने, बाळक तारो हुं बनुं. ॥ १३॥
संतप्त आ संसारमां, करुणानी जलधारा तमे,
चंदा तमे सूरज तमे, तप-तेजधर तारा तमे;
सहु जीवथी न्यारा तमे, सहु जीवना प्यारा तमे,
है नाथ! हैयुं दई दीधुं, हवे आजथी मारा तमे ! ॥ १४॥
मुज पुण्यनी पुष्टि तमे, संकल्पनी मुष्टि तमे,
भव ग्रीष्म-तापे तप्त जीवो, पर अमीवृष्टि तमे;
आ विश्वनी हस्ती तमे, मुज मनतणी मस्ती तमे,
मुज नेत्रनी दृष्टि तमे, मुज स्वप्ननी सृष्टि तमे ! ॥ १५॥
औचित्य केरूं कद तमे, जीवो प्रति गदगद तमे,
सर्वोच्च धरियुं पद तमे, वळी तेहमां निर्मद तमे;
करुणामहीं बेहद तमे, शुभता तणी सरहद तमे,
आतम तणा दुःसाध्य आ, भवरोगनुं औषध तमे ! ॥ १६ ॥
मार्गस्थ जीवो काज, भवनिस्तारणुं तरणुं तमे,
अध्यात्मना गुण बागमां, मन मोहतुं हरणुं तमे;
मुज पुण्यनुं भरणुं तमे, मुज प्रेमनुं झरणुं तमे,
आ विश्वना चोगानमां छो, शाश्वतुं शरणं तमे ! ॥ १७ ॥
तव नयनमांथी निखरतां, निर्मळ किरण झिल्या करूं,
ने निर्विकार दशा तणो, हरपळ प्रभु अनुभव करूं;
मुजने करावी शुद्धिनुं, महास्नान पछी शणगारजो,
हे नाथ ! निर्मळता तणुं, वरदान मुजने आपजो. ॥ १८ ॥
तव दर्श केरूं, स्पर्श केरुं, निमित्त लई अति निर्मळु,
नथी छुटती आ पाप ग्रंथी, केम करी पाछो वळु;
आ जीव केरी अवदशाने, कृपाळु देव निवारणो,
हे नाथ ! निर्मळता तणुं, वरदान मुजने आपजो. ॥ १९ ॥
मननां मलीन विचारनो, कोई अंत देखातो नथी,
काया तणी शुभ करणीनो, कांई अर्थ लेखातो नथी;
हवे एक औषध आप तारक, प्रार्थना अवधारणो,
हे नाथ । निर्मळता तणुं, वरदान मुजने आपजो. ॥ २० ॥
जे शरदऋतुना जळ समा, निर्मळ मनोभावो वडे,
उपकार काज विहार करता, जे विभिन्न स्थळो विशे;
जेनी सहनशक्ति समीपे, पृथ्वी पण झाखी पडे,
एवा प्रभु अरिहंतने पंचांग भावे हुं नमुं. ॥२१॥
कुंजरसमां शूरवीर जे छे, सिंहसम निर्भय वळी,
गंभीरता सागर समी, जेना हृदयने छे वरी;
जेना स्वभावे सौम्यता छे, पूर्णिमाना चंद्रनी,
एवा प्रभु अरिहंतने पंचांग भावे हुं नमुं. ॥२२॥
मने अंग पीडा न सतावे, मानसी पीडा घणी,
बेचेन छुं बस एक वात, दोषनी चिंता घणी;
व्याधि-उपाधि चालशे पण, पाप मारा टाळजो,
हे नाथ! मारा हृदयने, शांति समाधि आपजो. ॥२३ ॥
मुज पुण्यना उदये मळ्यो, संगाथ कायम राखजो,
ने आखरी पळमां प्रभु, तारी समीपे राखजो;
हुं आंख मीचं अंतकाळे, ए समय संभाळजो,
हे नाथ! मारा हृदयने, शांति समाधि आपजो. ॥२४ ॥
करुणाजळे घुघवी रह्यां, सागर समा तारा नयन,
महातेजथी चमकी रह्यां छे, सूर्य समा तारा नयन;
ज्यां सौम्यता छलकी रही छे, चंद्र सम तारा नयन,
करुणारसे अंजन करो, जेथी खुले मारा नयन. ॥२५ ॥
अमृतझरा तारा नयन, अश्रु भरा मारा नयन,
करुणाभीना तारा नयन, भावे भीनां मारा नयन;
अविकार छे तारा नयन, अनुरागी छे मारा नयन,
करुणारसे अंजन करो, जेथी खुले मारा नयन. ॥२६॥
तल्लीन थई तुज आंखमां, पीगळी गया मारा नयन,
तुज तेजने स्पर्शी करी, चमकी गया मारा नयन;
अंधार मारो दूर थयो, उजळां थयां मारा नयन,
करुणारसे अंजन करो, जेथी खुले मारा नयन. ॥२७॥
तिमिर टळ्युं मुज जीवनमां, जोया थकी तारा नयन,
खुशीओ छवाई दिल महीं, जोया थकी तारा नयन;
आधि टळी व्याधि टळी, जोया थकी तारा नयन,
करुणारसे अंजन करो, जेथी खुले मारा नयन. ॥२८॥
भीनाशनी आ पृष्ठभू पर, मळशे मने मारा प्रभु,
हवे कोई नथी चिंता मने, मळशे मने मारा प्रभु;
विश्वास छे खुदथी अधिक, मळशे मने मारा प्रभु,
आनंद छे, आनंद छे, आनंद बस आनंद छे. ॥२९॥
प्रीति करी में तारी साथे, कारण विना मारा प्रभु,
प्रभु तुं मने गमी गयो, कारण विना मारा प्रभु;
निश्चे बनीश हूं तारा जेवो, कारण विना मारा प्रभु,
आनंद छे, आनंद छे, आनंद वस आनंद छे. ॥३०॥
पात्रता हती अल्प तोये, अनराधार भींजवी दीधो,
त्रिलोकेश्वरनुं शरणं दई, अनराधार भींजवी दीधो;
खोबो मांग्यो दरियो दीधो, अनराधार भींजवी दीधो,
आनंद छे, आनंद छे, आनंद बस आनंद छे. ॥३१ ॥
आ लोकने परलोकथी, निरपेक्ष थई क्यारे विचरीश !
प्रभु वचनने हृदये धरी, अणिशुद्ध आराधन करीश;
आवशे समय प्राण त्यागनो, निर्लेप थई जोतो रहीश,
श्रामण्यना ए आस्वादने, क्यारे कहो माणीश प्रभु. ॥३२ ॥
दुःषम भले कलिकाल छे, वचन हाजरा हजूर छे,
सर्व संगना त्याग थकी, तने पामवानी एक आश छे;
मुज रोमे रोमे हे प्रभु!, तुज प्रति अनहद राग हो,
श्रामण्यना ए आस्वादने, क्यारे कहो माणीश प्रभु. ॥३३॥
राजीमति तमने मनाववा, नाथ वलवलती हती,
तोये तमे संयम तणा, संकल्पथी डग्या नथी;
हे सत्त्वमूर्ति ! सत्त्व ए, आ सत्त्वहीनने आपजो,
हे नेमिजिन ! मारा हृदयमां, शौर्यरस जन्मावजो. ॥३४॥
जे सत्त्व आराधी तमे, राजीमति छोडी गया,
जे सत्त्वने साधी तमे, विषयनी वासना तोडी गया;
ते सत्त्वनं प्रतिबिंब मारां जीवनपट पर पाडजो,
हे नेमिजिन ! मारा हृदयमां, शौर्यरस जन्मावजो. ॥३५॥
तव जीवनमां विषयो विकारो, नाथजी एकेय नथी,
मुज शुं कहुं ? मारा जीवनमां, ए विना कशुये नथी;
विनवुं हवे मुजमां, अनासक्ति ज्वलंत जगाडजो,
हे नेमिजिन ! मारा हृदयमां, शौर्यरस जन्मावजो. ॥३६॥
हूं इन्द्रियोना संगमां, दिनरात स्वामी राचतो,
एवो नचाव्यो नाचतो, घेलो बनीने नाचतो;
इन्द्रियविजयनो चांदलो, मुज भाल पर चमकावजो,
हे नेमिजिन ! मारा हृदयमां, शौर्यरस जन्मावजो. ॥३७॥
जेने बनी परवश अनंता, जीव दुर्गतिमां पड्या,
जेने करी स्ववश अनंता, जीव सिद्धिशिखरे चढ्या;
वशीकरण करवा मन तणुं, कोई मंत्र रूडो आपजो,
हे नेमिजिन ! मारा हृदयमां, शौर्यरस जन्मावजो. ॥३८ ॥
संसारनी निःसारता, निर्वाणनी रमणीयता,
क्षणक्षण रहे मारा जीवनमां, धर्मनी करणीयता;
सम्यक्त्वनी ज्योति हृदयमां, झळहळे श्रेयस्करी,
प्रभु ! आटलुं जनमोजनम, देजे मने करुणा करी. ॥३९॥
सवि जीव करुं शासनरसी, आ भावना हैये वहूं,
करुणाझरणमां रातदिन हूं, जीवनभर वहेतो रहूं;
शणगार संयमनो सजु, झंखुं सदा शिवसुंदरी,
प्रभु ! आटलुं जनमोजनम, देजे मने करुणा करी. ॥ ४०॥
गुणीजन विशे प्रीति धरुं, निर्गुण विशे मध्यस्थता,
आपत्ति हो, संपत्ति हो, राखुं हृदयमां स्वस्थता;
सुखमां रहूं वैराग्यथी, दुःखमां रहुं समता धरी,
प्रभु ! आटलुं जनमोजनम, देजे मने करुणा करी. ॥ ४१॥
मनमां स्मृति, मूर्ति नयनमां, वचनमां स्तवना रहे,
मुज रक्तना हर बुंदमां, जिनराज ! तुज आज्ञा वहे;
पहोंचाडशे ‘मोक्षे’ मने, जिनधर्म एवी खातरी,
प्रभु ! आटलुं जनमोजनम, देजे मने करुणा करी. ॥ ४२ ॥