प्रवेशनी ए यादो, ने उपमितिनी वातो,
तने जोई भींजाये, गुरु मारी आंखो,
पावागढनी प्रीति, ने साधनानी रीति,
द्विशताब्दी सिंचने, सर्जी भीतर नीति,
औचित्यनी वात, करे आतम उजास,
आप आधार मारा, नहीं छोडो मने, छे
अंतरनी चाह…. गुरुजी जिनागम… सुणजो तमे, भगवंत्… रही जाओ तमे… (१)
अम जीवननी, संजीवनी तुं, छे ज्ञाननी
ज्योती तुं ,के तारा विना, अंधारूं अहीं,
अम संघनो सथवार तुं,चार दी’नी
चांदरडी,पछी अंधारी रातलडी,
हवे खरी समजाणी,गुरु तुज वातलडी,
तुज मारग होजो मंगल,दो जिनवाणीनुं
संबल,कमळ जिग रहूं न्यारो चाहे,
आसपास हो दलदल,नवी भलमां राचुं,
तुज मारग याचुं, थाशे आत्मोध्दार,
खुले आतमद्वार, छे अंतरनी चाह….
गुरुजी जिनागम…. (२)
छे साधनानो, अहेसास तुं,धबकार
सिध्दिनो छे तुं, के तारा विना,
अधूरा अमे,अम राहनी पगथार तुं,
स्वामिवत्सल द्रष्टि ने, नृत्य भक्तिनी
सृष्टि, चैत्यपरिपाटीए वरसी,
दिव्य कृपा वृष्टि, कल्पवृक्षनुं आगमन,
गुरुराजनुं पदापर्ण, अभिग्रहे लखाणुं,
सोवन द्रव्योपार्जन, रथयात्रानो नाद,
शीलरक्षानो साद, अम नेत्र-गुरु,
तब वयणा झंखे, छे अंतरनी चाह…
गुरुजी जिनागम… (३)
सूनुं थशे, अम हृदय घर,वसमो छे
विरह तारो,के ईच्छा एवी, मळे तुज संग,
चाहुं तुज गुण शिखर,श्रीपाल केरी
शुध्दि,ने गोयम केरुं समर्पण,
परंपरानां ऋषि ए, सिंच्युं मंगल उपवन,
थावं मारे निर्दोष, मुज आतमनो आ
प्रघोष,जयन्त घारा झीलला मळ्यो,
जिनागम उद्घोष,शुं आवे मजा, तरछोडी
जतां,भवसागरे आप, नौका बनो, छे अंतरनी चाह…… गुरुजी जिनागम…. (४)