Shree Panch Kalyanak Stavan (Hindi)

Shree Panch Kalyanak Stavan (Hindi)

श्री पंचकल्याणक स्तवन

(तीन ढाल का)

शासन नायक शिवकरण,

वंदु वीर जिणंद,

पंच कल्याणक तेहनां,

गाशुं धती आनंद,

सुणतां थुणतां प्रभु तणां,

गुण गिरुआ एकतार,

ऋद्धि वृद्धि सुख संपदा,

सफल हुए अवतार..

 

 

॥ ढाल पहली ॥

सांभलजो ससनेहि सयणा,

प्रभुनु चरित्र उल्लासे रे,

जे सांभलशे प्रभु गुण तेहनां,

समकित निर्मल थाशे रे,

सांभलजो ससनेहि सयणां… ॥१॥

 

 

जंबुद्वीपे दक्षिण भरते,

माहणकुंड गामे रे,

ऋषभदत्त ब्राह्मण तस नारी,

देवानंदा नामे रे…

सांभलजो… ॥२॥

 

 

अषाढ सुदि छटे प्रभुजी,

पुष्पोत्तरथी चविया रे,

उत्तरा फाल्गुनी योगे आवी,

तस कुखे अवतरिया रे…

सांभलजो… ॥३॥

 

 

तिणे रयणी सा देवानंदा,

सुपन गजादिक निरखे रे,

प्रभाते सुणी कंथ ऋषभदत्त,

हियडामांहि हरखे रे…

सांभलजो… ॥४॥

 

 

भाखे भोग अर्थ सुख होस्ये,

होस्ये पुत्र सुजाण रे,

ते निसुणी सा देवानंदा,

कीधुं वचन प्रमाण रे…

सांभलजो… ॥५॥

 

 

भोग भला भोगवता विचरे,

एहवे अचरिज होवे रे,

शतक्रतु जीव सुरेश्वर हरख्यो,

अवधिए प्रभुने जोवे रे…

सांभलजो… ॥६॥

 

 

करी वंदनने इन्द्र सन्मुख,

सात आठ डग आवे रे,

शक्रस्तव विधि सहित भणीने,

सिंहासन सोहावे रे…

सांभलजो… ॥७॥

 

 

संशय पडियो एम विमासे,

जिन चक्री हरी राम रे,

तुच्छ दरिद्र माहण कुल नावे,

उग्र भोग विण धामे रे…

सांभलजो… ॥८॥

 

 

अंतिम जिन माहणकुंड आव्या,

एह अच्छेरु कहीये रे,

उत्सर्पिणी अवसर्पिणी अनंती,

जातां एहवुं लहीये रे…

सांभलजो… ॥९॥

 

 

इण अवसर्पिणी दश अच्छेरा,

थयां ते कहीये तेह रे,

गर्भहरण गोसाला उपसर्ग,

निष्फल देशनां जेह रे…

सांभलजो… ॥१०॥

 

 

मूल विमाने रवि शशी आव्या,

चमरानो उत्पात रे,

ए श्री वीर जिनेश्वर वारे,

उपना पंच विख्यात रे…

सांभलजो…॥११॥

 

 

स्त्री तीर्थ मल्लि जिन वारे,

शीतल ने हरिवंश रे,

ऋषभने अष्टोत्तर सो सिध्या,

सुविधि ने असंयती संस रे…

सांभलजो… ॥१२॥

 

 

शंख शब्दो मीलिया हरि हरिस्युं,

नेमीसर ने वारे रे,

तीम प्रभु नीच कुल अवतरिया,

सुरपति एम विचारे रे…

सांभलजो… ॥१३॥


॥ ढाल दूसरी ॥

भव सत्तावीश स्थूलमांहि त्रीजे भवे,

मरीचि कियो कुलनो मद

भरत यदा स्तवे,

नीच गोत्र कर्म बांध्युं तिहां ते थकी,

अवतरीया माहण कुले,

अंतिम जिनपति… ॥१॥

 

 

अति अघटतुं थयुं एह थाशे नहि,

जे प्रसवे जिन चक्री, नीच कुले नहीं,

इहां मारो आचार धरु उत्तम कुले,

हरिणगमेषी देव तेडावे एटले…॥२॥

 

 

कहे माहणकुंड नयरे जई उचित करो,

देवानंदा कुखेथी प्रभुने संहरो,

नयर क्षत्रियकुंड राय सिद्धारथ गेहिनी,

त्रिशला नामे धरो प्रभु

कुखे तेहनी…॥३॥

 

 

त्रिशला गर्भ लईने धरो माहणी उरे,

ब्याशी रात वसीने कहयुं तीम सुर करे,

माहणी देखे सुपन जाणे त्रिशला हर्या,

त्रिशला सुपन लहे तव

चौद अलंकर्या… ॥४॥

 

 

हाथी ऋषभ सिंह लक्ष्मी माला सुंदरु,

शशी रवि ध्वज कुंभ पद्म सरोवर सागरूं,

देवविमान रयणपुंज अग्नि विमल हवे,

जुए त्रिशला एह के

पीयुने विनवे… ॥५॥

 

 

हरख्यो राय सुपन पाठक तेडावीया,

राज भोग सुत फल सुणी ते वधाविया,

त्रिशला राणी विधिस्युं गर्भ सुखे हवे,

माय तणे हित हेत के

प्रभु निश्चल रहे… ॥६॥

 

 

माय धरे दुःख घोर विलाप घणुं करे,

कहे में कीधा पाप अघोर भवांतरे,

गर्भ हर्यों मुज कोणे हवे केम पामीये,

दुःखनुं कारण जाणी

विचार्युं स्वामीये… ॥७॥

 

 

अहो अहो मोह विडंबन

जालिम जगत में,

अणदीठे दुःख एवडो उपायो पलकमें,

ताम अभिग्रह धारे प्रभु ते कहुं,

माता पिता जीवतां

संयम नवि ग्रहुँ… ॥८॥

 

 

करुणा आणी अंग हलाव्यु जिनपति,

बोली त्रिशला माता हिये घणु हिसती,

अहो मुज जाग्यां भाग्य

गर्भ मुज सलवल्यो,

सेव्यो श्री जेन धर्म के

सुरतरु जिम फल्यो… ॥९॥

 

 

सखीय कहे शीखामण स्वामिनी सांभलो,

हलवे हलवे बोलो हसो रंगे चलो,

इम आनंदे विचरतां दोहला पुरता,

नव महिना ने साडा सात

दिवस थता… ॥१०॥

 

 

चैत्र तणी सुदि तेरस नक्षत्र उत्तरा,

जोगे जनम्या वीर के तव विकसी धरा,

त्रिभुवन थयो उद्योत के रंग वधामणा,

सोना रुपानी वृष्टि करे

घेर सुर घणा… ॥११॥

 

 

आवी छप्पन कुमारी के

ओच्छव प्रभु तणे,

चल्युं रे सिंहासन इंद्र के घंटा रणझणे,

मलि सुरनी कोड के सुरवर आवीयो,

पंच रुप करी प्रभुने

सुरगिरि लावीयो… ॥१२॥

 

 

एक क्रोड साठ लाख

कलश जलशुं भर्या,

किम सहेस्ये लघु वीर के इंद्र संशय धर्या,

प्रभु अंगुठे मेरु चाप्यो अति गडगडे,

गडगडे पृथ्वी लोक

के जगतना लडथडे… ॥१३॥

 

 

अनंत बली प्रभु जाणी इंद्रे खमावियो,

चार वृषभनां रुप करी जल नामीयो,

पूजी अर्ची प्रभु माय पास धरे,

अंगुठे अमृत वाही गया

नंदीश्वरे…॥१४॥


॥ ढाल तीसरी ॥

करी महोत्सव सिद्धारथ भूप,

नाम धरे वर्धमान रे,

दिन दिन वाधे प्रभु सुरतरु जिम,

रुपकला असमान रे…

हमचडी…॥१॥

 

 

एक दिन प्रभुजी रमवा कारण,

पूर बाहिर जावे रे,

इंद्र मुखे प्रशंसा सुणी तिहां,

मिथ्यात्वी सुर आवे रे…

हमचडी…॥२॥

 

 

अहि रुप विंटाणो तरस्यों,

प्रभुए नाख्यो उछाली रे,

सात ताडनुं रुप कयुँ तव,

मुठे नाख्यो वाली रे…

हमचडी…॥३॥

 

 

पाये लागीने ते सुर खामे,

नाम धरे महावीर रे,

जेवो इंद्रे वखाण्यो स्वामी,

तेवो साहस धीर रे…

हमचडी…॥४॥

 

 

माता-पिता निशाले मुके,

आठ वरसना जाणी रे,

इंद्र तणा तिहां संशय टाल्या,

नव व्याकरण वखाणी रे…

हमचडी…॥५॥

 

 

अनुक्रमे यौवन पाम्या प्रभुजी,

वर्या यशोदा राणी रे,

अट्ठावीस वरसे प्रभुनां माता-पिता

निर्वाणी रे… हमचडी…॥६॥

 

 

दोय वरस भाईने आग्रह,

प्रभु घर वासे वसीया रे,

धर्म पंथ देखाडो इम कहे,

लोकांतिक उल्लसीया रे…

हमचडी…॥७॥

 

 

एक क्रोड आठ लाख सोनेया,

दिन दिन प्रभुजी आपे रे,

इम संवत्सरी दान देईने

जगना दारिद्र कापे रे…

हमचडी…॥८॥

 

 

छोड्यां राज अंतेउर प्रभुजी,

भाई अनुमति दीधी,

मृगशीर वद दसमी उत्तराये,

वीरे दीक्षा लीधी रे…

हमचडी…॥९॥

 

 

चउनाणी तिण दिनथी प्रभुजी,

वरस दिवस झाड़ो रे,

चिवर अर्ध ब्राह्मणने दीधु,

खंड खंड बे फेरी रे…

हमचडी… ॥१०॥

 

 

घोर-परिसह साडा बार,

वरस जे जे सहिया रे,

घोर अभिग्रह जे जे धरिया,

ते नवि जाये कहीया रे…

हमचडी…॥११॥

 

 

शूलपाणि ने संगम देवे,

चंडकोशीक गोशाले रे,

दीधुं दुःख ने पायस रांधी,

पग उपर गोवाले रे…

हमचडी… ॥१२॥

 

 

काने गोपे खीला मार्या,

काढतां मूकी राटी रे,

जे सांभलता त्रिभुवन कंप्या,

पर्वत शिला फाटी रे…

हमचडी…॥१३॥

 

 

ते ते दुष्ट सहु उद्धरिया

प्रभुजी पर उपगारी रे,

अडद तणा बाकुला लईने,

चंदनबाला तारी रे…

हमचडी…॥१४॥

 

 

दोय छ मासी नव चउमासी,

अढीमासी त्रणमासी रे,

दोढ मासी वे वे कीधा,

छ कीधा बे मासी रे…

हमचडी…॥१५॥

 

 

बार मासी ने पख बहोंतेर,

छट्ठ बसे ओगणतीस वखाणु,

बार अट्ठम भद्रादि प्रतिमा,

दिन दोई चार दश जाणुं रे…

हमचडी… ॥१६॥

 

 

इम तप कीधां बारे वरसे,

वीण पाणी उल्लासे रे,

तेमां पारणां प्रभुजीए कीधा,

त्रणसे ओगण पचास रे…

हमचडी…॥१७॥

 

 

कर्म खपावी वैशाख मासे,

सुद दशमी शुभ जाण रे,

उत्तरा योगे शालि वृक्ष तले,

पाम्या केवलनाण रे…

हमचडी…॥१८॥

 

 

इंद्रभूति आदि प्रतिबोध्या,

गणधर पदवी दीधी,

साधु-साध्वी श्रावक श्राविका,

संघ स्थापना कीधी रे…

हमचडी…॥१९॥

 

 

चउद सहस अणगार,

साध्वी सहस छत्तीस कहीजे रे,

एक लाख ने सहस गुणसठ,

श्रावक शुद्ध कहीजे रे…

हमचडी…॥२०॥

 

 

तीन लाख अढार सहस वली,

श्राविका संख्या जाणी रे,

त्रणसे चउद पूर्वधारी,

तेरसे ओहीनाणी रे…

हमचडी…॥२१॥

 

 

सात सयां ते केवलनाणी

लब्धिधारी पण तेता,

विपुल मतिया पांचसे कहीया,

चारसे वादी जित्या रे…

हमचडी…॥२२॥

 

 

सातसे अंतेवासी सिध्यां,

साध्वी चउदसे सार रे,

दिन दिन तेज सवाये दीपे,

प्रभुजीनो परिवार रे…

हमचडी… ॥२३॥

 

 

त्रीस वरस घरवासे वसीया,

बार वरस छद्मस्थे रे,

त्रीस वरस केवल बेंतालीस,

वरस श्रमण मध्ये रे…

हमचडी…॥२४॥

 

 

वरस बहोंत्तेर केरुं आयु,

वीर जिणंदनुं जाणो रे,

दिवाली दिने स्वाती नक्षत्रे,

प्रभुजीनुं निर्वाण रे…

हमचडी…॥२५॥

 

 

पंच कल्याणक एम वखाण्या,

प्रभुजीना उल्लासे रे,

संघ तणो आग्रह हरख धरीने,

सुरत रही चोमासुं रे…

हमचडी…॥२६॥


. कलश .

इम चरम जिनवर सयल सुखकर,

थुण्यो अति उलट धरी,

अषाढ उज्जवल पंचमी दिन,

संवत सत्तर त्रिहोतरे,

(भादरवा सुद पडवा तणे

दिन रविवार उलट भरी)

विमल विजय उवज्झाय पदकज,

भ्रमर सम शुभ शिष्य ए,

रामविजय जिनवर नामे,

लहे अधिक जगीश ए ॥

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