श्री रत्नाकर पच्चीसी गुजराती | Shree Ratnakar Pachhisi Gujarati

श्री रत्नाकर पच्चीसी गुजराती | Shree Ratnakar Pachhisi Gujarati

श्री रत्नाकर पच्चीसी गुजराती | Shree Ratnakar Pacchisi Gujarati

मंगलाचरण…!

मंदिर छो, मुक्तितणा मांगल्य क्रीडा प्रभु,
ने इंद्र नरने देवता, सेवा करे तारी विभः
सर्वज्ञ छो स्वामी ओळी शिरदार अतिशय सर्वना,
घj जीव तुं, घणुं जीव तुं भंडार ज्ञान कळा तणा. ॥१॥

अभिधेय सूचना
त्रण जगत ना आधार ने अवतार हे करुणा तणा,
वळी वैद्य हे दुर्वार आ संसारनां दुःखो तणा;
वीतराग वल्लभ विश्वना तुज पास अरजी उच्चरुं,
जाणो छतां पण कही अने आ हृदय हुं खाली करुं. ॥२॥

बालक जैसे निखालसपन से विनंती
शुं बाळको माबाप पासे बाळ क्रीडा नव करे,
ने मुख्यमंत्री जी आवे तेम शुं नव उच्चरे ?
तेम ज हमारे पास तारक, आज भोळा भावथी.
जेवू बन्युं तेवुं कहुं तेमां कशुं खोटुं नथी. ॥३॥

दान, शील, तप और भाव के बिना व्यर्थ भव भ्रमण

में दान तो दीधुं नहि, ने शीयळ पण पाळ्युं नहि,
तपथी दमी काया नहि, शुभ भाव पण भाव्यो नहि;
ए चार भेद धर्मनाथ कोईपण प्रभु नव करूं,
मां भ्रमण भवसागरे निष्फळ गयुं, निष्फळ गयुं ? ॥४॥

कषाय के बंधन से प्रभु की भक्ति करने में शक्ति

हां क्रोध अग्नि थी बळो वाली लोभ सर्प डस्यो मने,
गळ्या मान रूपी अजगर हुं केम करी ध्यावे तने ?
मन मारो मायाजाल में मोहन, महा मुंजाय छे,
चडी चार चोरो हाथमां चेतन घणो चगदाय छे. ॥५॥

सत्कर्म के अभाव में भवों की निष्फलता

में परभवे के आ भवे पण हित कांई करूं नहि,
तेथी करी संसारमा सुख अल्प पण पाम्यो नहि;
जन्मो हमारा जिनजी ! भव पूर्ण करवाने थया,
आवेल बाजी हाथमां अज्ञानथी हारी गया. ॥६॥

मन की पत्थर से भी अधिक कठोरता

अमृत झरे तुज मुखरुपी चंद्रथी तो पण प्रभु,
भीजाय नहि मुज मन अरेरे ! हुं करुं हुं तो विभु:
पत्थरथकी पण कठीण माझं मन खरे क्यांथी द्रवे,
मरकट समा आ मन थकी हूं तो प्रभु हायो हवे. ॥७॥

दुष्प्राप्य रत्नत्रयी को प्रमाद से गवाँ देना

भूतों महा भवसागरे पाम्यो पसाये आपना,
जे ज्ञान दर्शन चरणरुपी रत्नत्रय दुष्कर घणां;
ते पण गया प्रमादना वशथी प्रभु कहुं छुं करुं,
कोनी कने किरतार आ पोकार हुं जईने करुं ? ॥८॥

वैराग्य, धर्म, विद्या का दुरुपयोग

ठगवा विभु आ विश्वा वैराग्य रंगों धर्या,
ने धर्म का उपदेश रंजन लोकने करवा कर्या;
विद्या भण्यो हुं वाद माटे केटली कथनी कहू ?
साधु थईने बहारथी दांभिक अंदरथी रहूं. ॥९॥

मुख, चक्षु और मन का दुरुपयोग

में मुखने में करूं दोष पराया गाने,
ने नेत्रने निंदित कर्यां परनारीमां लपटाईने,
वळी चित्तने दोषित कर्युं चिंती नठारुं परतणुं,
हे नाथ ! मारु शुं थशे चालाक थई चुक्यो घणो, ॥१०॥

कामांध होकर आत्मा को उत्पन्न की पीड़ा

करे काळजाने कतल पीडा कामनी बिहामणी,
ए विषयमां बनी अंध हुं विडंबना पाम्यो घणी;
ते पण प्रकाश आज लावी लाज आपतणी कने,
जाणो सहु तेथी कहुं कर माफ मारा वांकने. ॥११॥

मतिभ्रम से किए हुए कार्य

नवकार मंत्र विनाश कीधो अन्य मंत्रो जाणीने,
कुशास्त्रनां वाक्यो वडे हणी आगमोनी वाणीने;
कुदेवनी संगत थकी कर्मों कामां आचार्य,
मतिभ्रम थकी रत्नो गुमावी काच कटका में ग्रह्या. ॥१२॥

आप को छोड़कर मेरे द्वारा किए गए स्त्रियों के विकास की भजना

आवेल दृष्टिमार्गमां मूकी महावीर आपने,
में मूढधिए हृदयमां ध्याया मदीना चापने;
नेत्र बाणो ने पयोधर नाभि ने सुंदर कटी,
शणगार सुंदरीओ तणा छटकेल थई जोया अति. ॥१३॥

स्त्री मुख दर्शन से उत्पन्न हुए राग की तीव्रता

मृगनयनी सम नारी तणा मुख चंद्रमा नीरखावती,
मुझे मन विशेष जे रंग लाग्यो अल्पपण गूढो अति;
ते श्रुतरुप समुद्रमां धोया छतां जातो नथी,
तेनु कहो कारण तमे बचु केम हु आ पापथी ? ॥१४॥

दरिद्री होने पर भी मेरा अभिमान

सुंदर नथी आ शरीर के समुदाय गुणतणो नथी,
उत्तम विलास कळा तणो देदीप्यमान प्रभा नथी;
प्रभुता नथी तो पण प्रभु अभिमान थी अक्कड फळ,
चोपाट चार गति संसार मां खेल्या करू. ॥१५॥

महामोह से ग्रस्त हुई मेरी अवदशा

आयुष्य घटतुं जाय तोपण पापबुद्धि नव घटे,
आशा जीवननी जाय पण विषयाभिलाषा नव मटे;
औषध विषे करुं यत्न पण हुं धर्मने तो नव गj,
बनी मोहरा मस्तान हुं पाया बनाना घर च. ॥१६॥

वाणी की उपस्थिति होने पर भी अन्य की वाणी का किया स्वीकार

आत्मा नथी प्रभाव नथी वळी पुण्य पाप कशुं नथी,
मिथ्यात्वीनी कटु वाणी में धरी कान सीधी स्वाद थी;
रवि सम हता ज्ञाने करी प्रभु आपश्री तोपण अरे,
दीवो लई कूद पड्यो धिक्कार छे मुजने खरे. ॥१७॥

मैंने मनुष्य जन्म गवाँ दिया

में चित्तथी नहि देवनी के सुपात्रनी पूजा चाहि;
ने श्रावको के साधुओं धर्म पण पाळी नहि,
पाम्यो प्रेम नरदेव छतां रणमां रड्या जेवू थयु
धोबीतणा कुत्ता समुं मम जीवन सहु एळे गयुं. ॥१८॥

जैन धर्म पाकर भी कल्पवृक्षादि की स्पृहा की

हां कामधेनु कल्पतरु चिंतामणि ना प्यार मां,
खोटा छतां संख्या घणुं बनी लुब्ध आ संसार में;
जे प्रगट सुख देनार हारो धर्म में सेव्यो नहि,
मुज मूर्ख भावोने निहाळी नाथ करि करुणा कंई. ॥१९॥

विपर्यास बुद्धि

में भोग सारा चिंतव्या ते रोग सम चिंता नहीं,
आगमन इच्छ्युं धनतणुं पण मृत्युने प्रीछ्युं नहि;
नहि चिंतव्यु में नर्क कारागृह समी छे नारी,
मधुबिंदुनी आशा नहीं भय मात्र हुं भूली गयो. ॥२०॥

मेरे जन्म की निष्फलता

हां शुद्ध आचारो वडे साधु हृदय मां नव रह्यो,
करी काम पर उपकार यश, पण उपार्जन नव का:
वळी तीर्थनां ऊद्वार आदि कोई कार्यो नव कन्या,
फोगट अरे आ लक्ष चोराशी तणा फेरा फरिया ॥२१॥

संसार समुद्र को पार उतरने के लिए साधन का अभाव

गुरुवाणी मां वैराग्य केरो रंग लाग्यो नहीं आने,
दर्जनतणा वाक्यो महीं शांति मळे क्या थी मने;
तरो केम हुं संसार आ अध्यात्म तो छ नहि जरी,
तुटेल तळियानो घडो जळथी भराये केम करी ? ॥२२॥

भूत, वर्तमान और भविष्य तीनों जन्म में तो हार गया !!

में प्रभाव नथी पुण्य कीधुं ने नथी करतो हजी,
तो आवता भवमां कहो क्या थी थशे हे नाथजी:
भूतभावीने सांप्रत त्रणे भव नाथ हुं हारी गयो,
स्वामी त्रिशंकु जेम हुं आकाश में लटकी रह्यो. ॥२३॥

प्रभु के सर्वज्ञत्व का सूचना

अथवा नाकाम आप पास नाथ शं बकवं घणं?
हे देवता पूज्य ! आ चारित्र मुज पोतात,
जाणो स्वरूप त्रण लोकनुं तो मां शुं मात्र आ ?
ज्यां करोड़नो हिसाब नहीं त्यां पानी तो वात क्या ? ॥२४॥

अंतिम आंतरिक विज्ञप्ति

ह्हाराथी न समर्थ अन्य दीननो उद्धारनारो प्रभु,
म्हारा नही अन्य पात्र जगमां जोतां जडे हैं विभु;
मुक्ति मंगळ स्थान तो मोजणे इच्छा न लक्ष्मी तानी,
आपो सम्यग् रत्न श्याम जीवने तो तृप्ति थाने घणी !! ॥२५॥

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