श्री तीर्थंकर वन्दनावलि | Shree Tirthankar Vandanavali

श्री तीर्थंकर वन्दनावलि | Shree Tirthankar Vandanavali

श्री तीर्थंकर वन्दनावलि | Shree Tirthankar Vandanavali

कलिकालसर्वज्ञ श्री हेमचन्द्राचार्य कृत
‘सकरात स्तोत्र” का गूर्जर भावानुवाद
: भावानुवाद कर्ता :
पू. मुनि श्री राजरत्न विजयजी म.सा.

(हरिगीत)
सकलार्हतोमा जे महाज्योति स्वरूपे झळहळे,
जेना प्रभावे मुक्तिपदनी संपदा आवी मळे;
त्रण भुवनमांहि जेहनुं साम्राज्य सुंदर वास्ते,
अम हृदय ते आर्हन्त्यपदनुं ध्यान शुभ भावे धरे. १

सवि क्षेत्र में सवि कालिमा निज नामथी आकारथी,
वळी द्रव्यथी ने भावथी जे धर्मरथना सारथि;
त्रण लोकना सवि जीवने प्रभुता धरी पावन करे,
अम हृदय ते अरिहंतनी शुभ भावथी सेवा करे.
आ काळना जे प्रथम नरपति भूमिती शोभावता,
आ काळना जे प्रथम मुनिवर धर्मपथ अपनावता;
आ काळना जे प्रथम तीर्थंकर जगतने सुखकरूं, २

ते नाभिनंदन ऋषभजिननी भावथी स्तवना करूं. 
आकाश भूषण सूर्यना उदय कालवन खीलतुं,
तिम जेमनी वाणी-प्रभारी विश्व आखु विकसतुं,
अम्लान केवलनाण दर्पणमां जगतने पेखता, ३

आकाश भूषण सूर्यना उदय कालवन खीलतुं,
तिम जेमनी वाणी-प्रभारी विश्व आखु विकसतुं,
अम्लान केवलनाण दर्पणमां जगतने पेखता,
अरिहंत ते श्री अजितजिनने स्तवं शीश नमावता. ४

भविजीवना उररुप उपवनने हरित करतां सदा,
शुभवाणीनां अमृत वहे संभवजिनेश्वरना मुदा;
जाणे वही सरवाणी जलनी महेंकता उपवनमहीं,
ते वाणी जानवर देवनानी पोमजो जय जगमहीं. ५

सागरतणी लहेरो वधे जिम चन्द्रना दर्शन थकी,
स्याद्वाद-सागर उल्लसे तिम जेमनी वाणी थकी;
भगवान अभिनंदन सदा भवक्लेश सघळा टाळजो,
ने परमपदनो परम मंगल अखय आनंद आपजो. ६

सुमति जिनेश्वर ! आप चरणे देव ज्यारे प्रणमता,
तेना मुकुटना अग्र त्यारे पादनखने स्पर्शता;
रवि सम तदा तेजस्वी सोहे चरणना नख हे विभु !
अम मोहतमहारी थजो ते, ईष्ट आ पूरो प्रभु ! ७

जाणे करमरुपी अरि पर कोपना आटोपथी,
जे बालरवि सम दीसती ने दीपती निज तेजथी;
तनु कांती पद्मप्रभतणी ते संपदाने पोषजो,
ने निखिल जनता जनता संताप सर्वे शोषजो. ८

जे चार भेदे शोभता वर संघना आकाशने,
महासूर्य थई दीपावती ने आपता उद्योतने;
जेना चरणने देवना इन्द्रो सदाये पूजता,
ते श्री सुपार्श्वजिनेश नमतां पाप कर्मो धाता. ९

जाणे शरदपूनमतणा उज्ज्वल शशीकिरणो न हो,
जाणे शुक्लवर-ध्याननी प्रतिमा अभिनव ए न हो;
एवी अतिशय शुभ्र जेनी देह कांति राजती,
ते चन्द्रप्रभजिन-मूरति कल्याण-माला आपती. १०

करमां विलसता विमल जलने, जेम जगजन देखता
कैवल्यना आलोकथी तिम जेह जगने देखता:
त्रण भुवननो अद्भुत महिमा जेहमां वसतो सदा,
ते सुविधि जानवर आपजो सद्बोधिनी शुभ संपदा. ११

आषाढ नव मेघ सम संताप सहुना छेदता,
ने जेह परमानंदरुपी कंदने उद्भरे दता;
स्याद्वाद-अमृतथी भरेला वचन जे वरसावता,
शीतलजिनेश्वर ते सदा अम भावप्राणो रक्ष. १२

संसारना महारोगथी संत थाता जीवन,
धन्वंतरि सम जेहनुं दर्शन दीये सुखशातने;
त्रिभुवनतणां मन मोहती वरमुक्तिरमणी जे वरे,
श्रेयांसप्रभु श्रेयस्करा मांगल्य जीवन नुं करे. १३

जगना अखिल जीवो प्रति उपकारने फेलावती,
अद्भुत तीर्थंकरपणानी ऋद्धि जैन सोहती;
सुर-असुरने नरनाथ जेनी भावथी पूजा करे,
ते देव वासुपूज्य वहालां अम हृदय पावन करे. १४

आषाढ ऋतुमां जल नदीनुं मलिनताने पामतुं,
पण फटकडीना योगथी ते स्फटिक सम निर्मल थतुं;
तिम निखिल जगजीवो तणां जे मलिन मन निर्मल करे,
ते विमलजिननी विमल वाणी विश्वमां विजयो वरे. १५

स्पर्धा करे सागर स्वयंभूरमणना जे नीरनी,
ए परम करुणा करे हितकामना जे विश्वनी;
ते श्री अनंतजिनेश निज करुणा तणा किरणो वडे,
अजवाळजो अम चित्तने शिव शर्म जेथी सांपडे. १६

जिम कल्पतरुवर सर्व जनना मन-मनोरथ पूरे,
आ लोक ने शिवलोकना तिम जे अभीष्टो पूरता;
वळी चार मुखथी जे चतुर्विध धर्म प्रतिपादन करे,
ते धर्म जानवर पदक मुज मनभ्रमर विलस्यां करे. १७

जिम चन्द्रकेरी चांदनी आकाशने अजवाळती,
जिनवचनकेरी चांदनी तिम सर्व दिशि अजवाळती;
हरिणांक पण अकलंक जे वळी मोहनां तिमिरो हरे,
ते शांतिजिनवर सेवतां भवि श्रेयनी संपद वरे. १८

चोत्रीश वर अतिशय थकी जे परम प्रभुताने धरे,
ज्ञानादि चार महातिशयथी जेह विभुताने वरे;
सुर असुरने नरनाथना जे एक शरणाधार छे,
ते कंथजिन संपत्तिदाता अम हृदय आधार छे. १९

महासूर्य जिन किरणो थकी जिम गगनने भूषित करे,
तिम जे चतुर्थारकमहीं आ अवनिने भूषित करे;
वळी जे भविकनी मोक्षरुपी संपदा विस्तार,
ते अरजिनेश्वरने अमें मनमंदिरे पधरावता. २०

नव मेंघना आटोपथी जिम मोरला आनंद,
तिम सुर-असुर-नर-इन्द्र जेना दर्शन आनंद;
जे कर्मना विषवृक्षने गजराज सम उन्मूलता,
स्तवीए सदा ते मल्लिजिनने, सर्व संकट चूरता. २१

महामोहनिद्राथी सकलजनना निमीलित नयनने,
जागृत करे जेना वचन वरतां उषा-उपमानने;
ते नाथ मुनिसुव्रत वणी शुभ देशनाना वचननी,
स्तवना हरे अम वेदना भीषण भवोना भ्रमणनी. २२

 

विनये भरेलां हृदयथी नमतां जनोना शिर परे.
जेना चरण-नखना किरण जलधार सम वर्षा को;
ने ए भविकना मनतणा सवि भावमल दूर करे;
जिनराज ते नमिनाथना नखकिरण अम रक्षा करे. २३

यदुवंशरुपी सिंधुने जे इन्दु थई हरखावता,
ने कर्मरुप अरुण्यने जे अनल थईने बाळतां;
ते नाथ नेमिजिनेश वहालां अम हृदयना अशुभने,
हरनार थाजो ने वळी प्रगटावजो शुभ भावने. २४

अति घोर उपसर्गो करीने पीडनारा कमठने,
अति उच्च भावोने धरीने पूजनारा धरणने;
जे तुल्यभावे देखतां ने निजस्वरुपे राजा,
ते प्रार्श्वप्रभु परमेश्वरा अम आत्मलक्ष्मी आपता. २५

क्रीडा करतां राजहंसो मानसरमा राजता,
महानंदरुपी सरमही तिम जेह अतिशय दीपता;
अद्भुत केवलसंपदाथी नाथ थई जे शोभता,
अरिहंत ते श्री वीर जिनने, भावना साहू वंदना. २६

षड्मास उपसर्गो करी निज ध्येय चूकी भागता,
संगम आराधना परम ध्याने रहीने पोखता;
श्री वीर नयने वह्यो करुणातणो अश्रुझरो,
करुणाभतं ते नेत्रयुग आ विश्वनुं मंगल करो. २७

रवि-चन्द्र केरां तेजने निज तेजाजी जे जीतता,
ने सुर-असुर ना इंद्र जाने भावनाथी पूजा;
जे कर्ममलथी मुक्त छे संत्रासथी पण मुक्त छे,
ते त्रण-भुवन-शिरताज वहालां वीर जयश्री युक्त छे. २८

(शार्दूलविक्रीडित)
जे पूजा सुरासुरेश्वर थकी, जेने भजे पंडितों.
जेणे कर्म-समूहनो क्षय कर्यो, जेने नमें सौ सदाः
जेनाथी प्रगट्यो सुतीर्थ शुभ आ, जेना तपो घोर छे,
जेमां श्री-धृति-किति-शांति वसता, ते वीर कल्याण दो. २९

(मालिनी)
अवनितल रहेली, शाश्वती ने ने री;
वन भवन विषय में, ज्योतिष ने विमान;
नर-रचित कहानी, देवराजे भोजली%3
जानवर भवनों नी, मूर्ति ने हुं नम छुं. ३०

(हरिगीत)
सघळा य देवसमूहमां जे, प्रथमस्थाने सोहता,
वळी पंच परमेष्ठी महीं जे, प्रथम पद शोभावता;
वर्ते अखिल भावो जगतना जेहना वर ज्ञान में,
ते देवना पण देव रहेजो वीर मारा ध्यानमां. ३१

(शार्दूलविक्रीडित)
जे छे कैंक भवोतणा दुरितने, प्रज्वाळता आग शा,
जे छे सिद्धिवधूतणा हृदयने, शोभावता हार शा;
जे अष्टादश दोषरुप गजने, निर्भेदता सिंह शा,
भव्योना मनवांछितार्थ करजो, ते वीतरागी प्रभु. ३२

श्री अष्टापद आबु ने शिखरजी, शत्रू जयाद्रि स्तव,
वैभाराद्रि तथा सुवर्णगिरि ने, श्री चित्रकूट स्त;
श्रीमान् मण्डपदुर्ग ने गजपद, श्री रैवताद्रि स्तवन,
त्यांना श्री ऋषभादि सर्व जिनजी, कल्याणकारी बनो. ३३

 

(हरिगीत)
श्री हेमचन्द्राचार्यना सकलार्हताभिध स्तोत्रने,
गूर्जरगिरामां वर्णव्यु सम्यक्त्व शुद्धि कारणे;
सूरीश-सूर्योदय-शिशु मुनि राजरत्ने भावथी,
जिन भक्तिरसना रसिक जन ते धारशे उल्लासथी. ३४

Related Articles

× CLICK HERE TO REGISTER