संयम है अनमोल
संयम तुम पालो जी, हिरा जनम मिला,
उसे सफल बनालो जी।
संयम जीन धारा जी, भव के बंधन से,
मिल गया छुटकारा जी।
संयम धर्म ” संयम धर्म ” पांच इंद्रिया और मन को वश मे रखना। भगवान महावीर नें कहां है ” मानव त्वमेव सत्वं ” अर्थात, हे मानव तू सत्वशाली है। आत्मा द्वारा पूर्व में बांधे गये कर्मो का क्षय करने की शक्ति मानव देह से ही संभव है। यह तभी संभव हो पायेगा जब संयम धर्म को जीवन में उतारेगा।
प्रत्येक भव्य जीव मूल रूप से शुद्ध व परमात्म स्वरूप ही है। जैसे पानी मूल रूप में शुद्ध है परंतु जिस मार्ग से प्रवाहित हो जाता है वह जैसे संयोगो से गुजरता है, वह अशुद्ध व मैला हो जाता है।परंतु वहीं पानी पुनः प्रोसेस द्वारा शुद्ध किया जा सकता है। वैसे ही आत्मा अशुभ कर्मों के संयोग से अशुद्ध पर्याय से गुजर रही है। शुभ व शुद्ध प्रवृत्ति से पुन्हः अपने मूल रूप मे आ सकती है। यह सब हमारे पुरूषार्थ पर निर्भर है।
हमारा पुरूषार्थ संयम धारण करने का होना चाहिये। संयम से पंचपापों से निवृति और संयम धर्म में प्रवृती होती है। यही मानव जीवन का सार है।यहीं से आत्म कल्याण का मार्ग प्रशस्त होता है। व्यवहार में भी देखो ! भोजन में संयम रखने से शरीर स्वस्थ रहता है।वाणी संयम से अनेक अनर्थ टलते। संयम को मानव जीवन का श्रृगांर बताया है। संत कहते है,
संयमेन विना प्राणि पशुरेव न संशयः ”
योग्यायोग्यं न जानति भेदस्तत्र कुतो भवेत “। संयम सदाचार बिना मनुष्य पशु समान है। जैसे पशु हिताहित का विचार नही करता, वैसे संयम विहिन मानव योग्य अयोग्य का विचार नही कर पाता। रात दिन असंयम से, अनितीपुर्ण व्यवहार में लगा है और संसार सागर में भटक रहा है।