शाश्वत तीर्थ सिद्धाचल का नाम “शत्रुंजय” एवं “पालीताणा” कैसे पड़ा ??
शत्रुंजय – चौथे तीर्थंकर अभिनन्दन स्वामी जी के तीर्थकाल में किन्ही शुक राजा ने इस तीर्थ पर विशिष्ट तपस्या कर के न केवल अपने राज्य के शत्रुओं को परास्त किया बल्कि उसके बाद यहीं तपस्या कर अपनी आत्मा के शत्रुओं (कर्म) पर विजय प्राप्त कर केवलज्ञान मोक्ष प्राप्त किया । तबसे इसका नाम शत्रुंजय प्रचलित हुआ । पूरी कहानी किसी के पास हो तो शेयर करे।
पालीताणा – भगवन महावीर के शासन में एक महाप्रभावक आचार्य पादलिप्त सूरि जी हुए । उनके शिष्य नागार्जुन ने अपने गुरु की याद में शत्रुंजय के आसपास पादलिप्तपुर नगर बसाया तो कालान्तर में पालीताणा कहलाया गया ।
वो आचार्य पादलिप्त सूरीश्वर जी कौन थे ?
उनका जन्म अयोध्या(कौशल) में हुआ था
उनका नाम मुनि नागेन्द्र था किन्तु उन्हें गुरु द्वारा ऐसी विद्या प्राप्त हुई जिससे पैरों में लेप लगाते ही वे आकाश में उड़ सकते थे । अतः उन्हें पादलिप्त के नाम से जाना गया
मात्र १० वर्ष की छोटी सी आयु में वे आचार्य बन गए ।
उनका जन्म ईस्वी सन् ९३ में हुआ यानि आज से लगभग १९२२ वर्ष पहले
वो विशिष्ट मंत्र एवं तंत्र विद्या के धनी थे , सिद्धियों लब्धियों से संपन्न थे । एक बार उन्होंने जहाँ पेशाब किया , वो भी सोने gold की जगह बन गयी
३२ उपवास करके उनका कालधर्म शत्रुंजय पर्वत पर हुआशाश्वत तीर्थ सिद्धाचल का नाम “शत्रुंजय” एवं “पालीताणा” कैसे पड़ा ??
शत्रुंजय – चौथे तीर्थंकर अभिनन्दन स्वामी जी के तीर्थकाल में किन्ही शुक राजा ने इस तीर्थ पर विशिष्ट तपस्या कर के न केवल अपने राज्य के शत्रुओं को परास्त किया बल्कि उसके बाद यहीं तपस्या कर अपनी आत्मा के शत्रुओं (कर्म) पर विजय प्राप्त कर केवलज्ञान मोक्ष प्राप्त किया । तबसे इसका नाम शत्रुंजय प्रचलित हुआ । पूरी कहानी किसी के पास हो तो शेयर करे।
पालीताणा – भगवन महावीर के शासन में एक महाप्रभावक आचार्य पादलिप्त सूरि जी हुए । उनके शिष्य नागार्जुन ने अपने गुरु की याद में शत्रुंजय के आसपास पादलिप्तपुर नगर बसाया तो कालान्तर में पालीताणा कहलाया गया ।
वो आचार्य पादलिप्त सूरीश्वर जी कौन थे ?
उनका जन्म अयोध्या(कौशल) में हुआ था
उनका नाम मुनि नागेन्द्र था किन्तु उन्हें गुरु द्वारा ऐसी विद्या प्राप्त हुई जिससे पैरों में लेप लगाते ही वे आकाश में उड़ सकते थे । अतः उन्हें पादलिप्त के नाम से जाना गया
मात्र १० वर्ष की छोटी सी आयु में वे आचार्य बन गए ।
उनका जन्म ईस्वी सन् ९३ में हुआ यानि आज से लगभग १९२२ वर्ष पहले
वो विशिष्ट मंत्र एवं तंत्र विद्या के धनी थे , सिद्धियों लब्धियों से संपन्न थे । एक बार उन्होंने जहाँ पेशाब किया , वो भी सोने gold की जगह बन गयी
३२ उपवास करके उनका कालधर्म शत्रुंजय पर्वत पर हुआ