विसमे भवमरुदेसे , अणंतदुहगिम्ह तावसंतत्ते । जिणधम्मकप्परुक्खं , सरसु तुमं जीव सिवसुहदं ॥१०३ ॥ : अर्थ : हे जीव ! अनन्त दुःख रुप ग्रीष्म ऋतु के ताप से सन्तप्त और विषम ऐसे संसाररुप मरुदेश में शिवसुख को देनेवाले जिनधर्म रुपी कल्पवृक्ष को तू याद कर ॥103 ॥
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