क्तामर पर आज की विवेचना ज़ारी रखते हुए …?Bhaktāmara today’s discussion on taking zārī…. ?
॥ क्रमांक “३ ” ॥
? राजा भोज की कारागृह में बंदी बने आचार्य श्री मानतुंगसुरिस्वर जी म. सा. ने, इस अवसर्पिणी काल के प्रथम तीर्थंकर प्रभु श्री आदिनाथ दादा की स्तवना-रूपे, चमत्कारी मंत्र-युक्त भक्तामर स्तोत्र की रचना, वसंततिलका छंद में शैली-बद्ध कर के, संस्कृत में की थी।
एक एक गाथा रचते हुए, मंत्रबीज के प्रभाव से, एक एक बेड़ियों से, अपने आप को मुक्त कराते हुए वह कारावास में से बाहर आये थे।
? आज मैं, दक्षा मेहता कोलकाता से, यह चमत्कारी आदिनाथ-स्तवना रुपी, स्तोत्र भक्तामर की तीसरी गाथा भावार्थ सहित, आप सभी के सामने प्रस्तुत कर रही हूँ।
??आईये आज जानते है भक्तामर स्तोत्र की तीसरी गाथा रचते समय आचार्य श्री मान्तुङ्गसुरिस्वर जी म. सा. के भाव क्या थे ?
♦तीसरी गाथा का फल सर्वसिद्धिदायक ::::
?बुद्धया विनापि विबुधार्चित-पादपीठ,
स्तोतुं समुद्यत-मतिर्विगत-त्रपोहम्
बालं विहाय जल-संस्थित-मिन्दु-बिम्ब-
मन्यःक इच्छति जनः सहसा ग्रहीतुम् ॥3॥
बुद्धया विनापि विबुधार्चित-पादपीठ,
(सुरपूजित देवो द्वारा पूजे गए – पादपीठ मतलब जिनका सिंहासन पूजा जाता है वैसे आप हे प्रभु, मेरी तो कोई बुद्धि ही नहीं है )
स्तोतुं समुद्यत-मतिर्विगत-त्रपोहम्
(अल्पबुद्धि होने के बावजूद भी मैंने लाज और शर्म त्यज कर आपकी स्तुति करने की उद्ध्यम मति बनायी है – उद्ध्यम मतलब कोई भी कार्य सिद्ध करने हेतु किया गया प्रयास , और इस प्रयास में, मैं समुध्यत हुआ हूँ )
बालं विहाय जल-संस्थित-मिन्दु-बिम्ब-
(जैसे कोई नासमझ़ बालक जल में चाँद का प्रतिबिम्ब देख कर उसे पाने के लिए अपना हाथ बढाता है )
मन्यःक इच्छति जनः सहसा ग्रहीतुम् ॥3॥
(वैसे ही आप चाँद रुपी को पाने के लिए मैं बालक बन कर समर्थ ना होते हुए भी आपकी स्तुति करने की इच्छा रखता हूँ । मेरी धृष्टता क्षमा करें। )
अर्थात्
?आचार्य श्री जी इस तीसरी स्तुति में अपने बालक होने के भाव से प्रभु की स्तुति करते है कि …
“”हे प्रभु, कहाँ आपका केवलज्ञान और कहाँ मेरी अल्पबुद्धि। आपके पास तो मैं नासमझ़ बालक हूँ फिर भी आपके गुणों के प्रति मेरे परम प्रेम की वजह से आपकी स्तुति करने के लिए मैं उद्ध्यमी हुआ हूँ।
इन्द्रादि विबुधजनो द्वारा जिनका सिंहासन पूजा जाता है वैसे आप जिनेन्द्र है । मुझ में बुद्धि नहीं है फिर भी लज्जा और शर्म को त्यज कर, आपकी स्तुति करने समुध्यत हुआ हूँ। जल में दिख रहे चाँद के प्रतिबिम्ब को नासमझ़ बालक के अलावा और कौन पाने की इच्छा रख सकता है ? आज मैं वही अल्पबुद्धि बालक बन कर, चन्द्र रुपी आप को पाने के लिए, आपकी स्तुति करने की इच्छा रखता हूँ। मेरी धृष्टता क्षमा करे प्रभु ।””
क्रमश : चौथी गाथा कल सुबह स्वाध्यायकालिन
??जिन आज्ञा विरुद्ध कुछ भी लिखा गया हो तो मन, वचन, काया से मिच्छामी दुक्कड़म ??