Akshay Nidhi Tap Vidhi | अक्षयनिधितप–विधि

Akshay Nidhi Tap Vidhi | अक्षयनिधितप–विधि

Akshay Nidhi Tap Vidhi | अक्षयनिधितप–विधि

अक्षयनिधितप–विधि
प्रातः काल में तप-कारक  श्रावक-श्राविका को प्रथम जिन प्रतिमाजी की पूजा करके स्नात्र भणाने के बाद कलश के सामने बाजोट के ऊपर चाँवलों के एकावन साथिया कर उन पर बदाम,सुपारी,पतासा और यथाशक्ति पैसा या आनी चढ़ाना। फिर एक खमासमणा देकर ‘इच्छाकारेण संदिसह भगवन् !        इरियावहियं पडिक्कमामि? इच्छं,इच्छामि पडिक्कमिउउअं  इरियावहियाए; तस्स उतरी; अन्नथ ‘ कह कर एक लोगस्स या चार नवकार का काउस्सग्ग करके लोगस्स कहना। फिर ‘इच्छाकारेण संदिसह भगवान्  ! श्री अक्षयनिधितप आराधनार्थ चैत्यवंदन करूं? इच्छं’ कह कर नीचे का चैत्यवंदन कहना। 
शासन पति महिमा-निधि, वर्द्धमान जिनदेव।
वासव नरपति आय के, सेव करे नितमेव।1।।
समवरसण में बैठ के, भाष्यो भवि हितकार। 
अक्षयनिधितप आदरो, ज्ञान न-तयाण दातार।2।
चैत्यवंदन पडिकमण, ब्रह्मचर्य-व्रत धार। 
   ज्ञान ज्ञानि की सेवना, करिये चित उदार।3
सूत्रे तप बहुविध कह्या, शिवसुख दायक जेह।
अक्षय वैभव पामवा, ए तप पण गुण गेह।4।।
विधियुत जे आराधशे, थिर कर मन वच काय।
सूरियतीन्द्र पद ते लहे, सुन्दरी सम सुखदाय।।5।।
 
‘नमुत्थुणं .’ बोलके ‘आभवमखंडा’ तक जयवीयराय कहना। फिर दो खमासमण देकर ‘इच्छाकारेण संदिसह भगवन्! चैत्यवंदन करूं? इच्छं ‘ कह कर नीचे का चैत्यवंदन कहना । 
 भय-भंजन जिनवीरनो, वर्ते शासन आज। 
आगमवाणी तेहनी, राजे सयल समाज। 1।
सम्यग् श्रुत की संपदा, एहज सत्य प्रमाण ।
विषमा पंचमकाल में, करे शुद्ध सरधान।2। 
अक्षयनिधि-तप तेहमां, भाष्यो केवलिराय।
विधिसंयुत आराधतां, कर्म-रोग मिट जाय।3।
चरम जिनेश्वर-शासने, द्योतित तपः प्रकाश ।
सूरियतीन्द्र तप धामने, वन्दे भाव हुलास। 4।
  जंकिचि नामतित्थं;नमुत्थुणं ., खड़े होकर ‘अरिहंत चेइयाणं;अन्नथ,’कह कर एक नवकार का काउस्सग्ग कर, पार कर’नमोSर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुभ्यः’ बोलकर नीचे की थुई करना। 
सेवो भवियण तपपद भावे,द्वादश भेद विचारी जी,
बाह्य अभ्यन्तर करतां भक्ते, कर्मकष्ट अध टारी जी। 
अन्तर आतम ध्यान अभ्यासे, संवर समता धारी जी,
अनुपम लीला संपद पावे, अविचलपद अधिकारीजी। 1।
    ‘लोगस्स; सव्वलोए अरिहंतचेइयाणं; अन्नथ.’ एक नवकार का काउस्सग्ग कर,पार कर नीचे की थुई कहना। 
समवसरण में कनकसिंहासन, त्रिभुवन नायक राजेजी वीसथानक तप करतां पामे, सुखतमृद्धि समाजे जी ।
वीरादिक चोवीस जिनेश्वर तप करी कर्म खपयाजी निर्मल केवल जेहनुं शासन,वर्ते जग सुख दायाजी। 2।
‘पुक्खरवरदी; सुअस्स भगवओं करेमि काउस्सग्गं वंदणवतिआए; अन्नथ.’ एक नवकार का काउस्सग्ग कर पार कर नमोSर्हत्सिद्धा.’ बोलकर नीचे की थुई कहना।
कर्म-महीधर भेदन पवि-सम, तपवर बहविध जाणोजी।
अक्षयनिधि गुण-संपद दाता, श्रुतधर सूत्र प्रमाणों जी।।
गुरुगम- विधि उद्यापन साथे, आराधो भली भावे जी। 
सूरियतीन्द्र शिवसुन्दरी वरवा, अहनिशतपनेध्यावेजी।।
‘सिद्धाणं बुद्धाणं.’ नीचे बैठ कर ‘नमुत्थुणं.’ खड़े होकर ‘अरिहंतचेइयाणं.अन्नथ.’ एक नवकार का काउस्सग्ग कर पार कर नमोSर्हत्सिद्धा.’ बोलके नीचे की थुई कहना। 
श्रुरदेवी जितवाणी भाषक लोकाSलोक ।
जिनपति इम भाषे, देवे गणधर धोक ।।
माली-अर्जुन धन्ना, दृढप्रहारी जाण।
 तप वर आचरतां, पाम्या पद निर्वाण।।1।।
              ‘लोगस्स; सव्वलोए अरिहंतचेइयाणं;अन्नथ ‘ एक नवकार का काउस्सग्ग कर, पार कर नीचे की थुई कहना।
              सुविहित मुनि सूरि, वरिया पद             महानंद। 
त्रीजे भव तप करी, पाया पद जिनचंद।।
छद्यस्थपणें तप करतां अतिशयवंत। 
केवल महा भोगी, पूजें सुरगण संत।।2।। 
              पुक्खरवरदीवड्ढे. सुअस्स भगवओ करेमि काउस्सग्गं वंदणवतिआए. अन्नथ. एक नवकार का काउस्सग्ग कर, पार कर ‘नमोSर्हत्सिद्धा.’ बोलके नीचे की थुई कहना।
       इम तपवर धारी, तस पटधर सुखकार।
सिद्धान्ते भाष्या, दोय हजार ने चार। 
पंचम कलिकाले, युगप्रवर अवतार। 
सूरियतीन्द्र तो बन्दे आणी भाव उदार।।3।।
‘सिद्धाणं बुद्धाणं.’ नीचे बैठ कर ‘नमुत्थुणं.जावंति; खमासमणा देना; जावंत; खमासमणा देना; नमोSर्हत्सिद्धा; उवसग्गहरं., अथवा नीचे का स्तवन कहना। ‘
अक्षयनिधि-तप आदर रे,आदर आदर आदर रे ।
तप आदरी संपति वर रे, अक्षयनिधि .।।टेर।।
अज्ञान नाशक मिथ्या-विनाशक, ज्ञान भानुतम हर रे।
स्वपर प्रकाशक श्री श्रुतज्ञान की, भक्ति कर भव तर रे। ।।अक्ष।।1।।
पांचों ज्ञान में श्रुत है मोटो, भाषे श्रीश्रुतधर रे। 
श्रुत विन बोध न पामे चेतन, जिनश्रुन जग हितकार रे। ।।अ .।।2।।
ज्ञान आराधे सवि सुख साधे, लीला लहेर जस घर रे। 
ज्ञान की महिमा जगमें भारी, भावे नमत चरण नरवर रे। ।।अ.।।3।।
जैनागाम में ए तप भाष्यो, सद्गुरु साखे ऊचर रे। ।।अ.।।4।।
गुरुगम लही अक्षयनिधितप कर, अखूट खजानो भर रे। 
सूरिराजेन्द्र यतीन्द्रसूरि का, नित-नित उठी समर रे। ।।अ.।।5।।
        जयवीयराय ‘आभवमखंडा’ तक कह कर ‘खमासमणा;’ इच्छाकारेण; चैतयवंदन करूं?
इच्छं बोलकर नीचे का चैतयवंदन कहना। 
तप करिये अक्षयनिधि,ऋद्धि-सिद्धि सुख हेत।
ज्ञान-भक्त भव आदरो,क्रिया विधान समेत।1।
तपथी नवनिध संपजे, तपथी होय कल्याण। 
तपथी जग यश पामीये, तपथी लहो सुख-खाण। ।2।।
अखंड सुख वर पामिये, अखंड होय प्रताप।
आणा जग लोते नहीं, टले भवो-भव पाप।3।
मिथ्यातमने मेटवा, लेवा सम्पति पूर। 
सूरियतीन्द्र अक्षयनिधि तप करतां अघ दूर।4।
     ‘नमुत्थुणं.’बोलकर ‘जयवीयराय .’संपूर्ण कहना। ( प्रातःकाल प्रतिक्रमण में एकासनादि का पच्चक्खाण न लिया हो, तो यहाँ पर पच्चक्खाण लेना और ले लिया हो, तो याद कर लेना चाहिए। )
   उपरोक्त उत्कृष्ट चैत्यवंदन विधि किए बाद अक्षयनिधितप की पूजा नीचे मुताबिक भणाना।
                  ज्ञान पद पूजा 
                      -दोहा-
नवपद में पद सातमो, स्व-पर प्रकाशक ज्ञान। 
आराधो भली भात से, हरो अनादि अज्ञान।1।
    ढाल 1स्वामी सीमन्धर उपदिशे; ए राह-
नमिये भवि श्रुत नाणने, इण पर भव सुखकारी रे।  
ज्ञाने शिव सम्पति लहो, अक्षय सुखअविकारी रे नं.।।1।।
अज्ञान अन्धता मेटवा, ज्ञानभानु जयवन्तो रे,
पंच भेद सुं सोहतो, जगमें महिमावन्तो रे।2।
मति आदि पंच ज्ञान में, श्रुत स्व-पर ओलखावे रे। 
ज्ञान अवरने जाणिये,श्री श्रुतज्ञान प्रभावे रे।3।
जिन, भाषित आगमतणो, अर्थ न लहे अज्ञाने रे। 
ज्ञाने धर्मना मर्मने, ज्ञान गुणी पहचाने रे। 4।
ज्ञानीजल जग में बड़ो,राय राणा सहु नमता रे। 
पूजा करो श्रुतज्ञाननी, पावो सुख मन गमता रे।।5।।
ज्ञान भक्ति करो शुद्ध मने, ज्ञान अबोधता जावे रे। 
ज्ञान ध्यान गुण संपजे, सूरियतीन्द्र स्वभावे रे। ।6।।
                  -दोहा- 
उपकारी शशि-रवि परे, हितकारी जिम मेह।
तिम मिथ्यातम मेटवा नमो ज्ञान गुणगेह।।1।।
   ढाल 2.श्री सीमन्धर साहिव आगे;ए राह-
ज्ञानाधारे पान आपननो,जाणे सकल विचार। 
भक्षाअभक्ष न जे विण जाणें, पामें न शुद्धाचार रे। ।1।।
         प्राणी! ज्ञान जगत सुखकारी,
       परमानंद दातारी रे प्राणी ज्ञा.।।टेर।।
कृत्याअकृत्य सविकल्प विकल्प, धर्मोअधर्मनो मर्म। 
ज्ञान रहित जन ए नवि जाणे, ज्ञाने टले सहु भर्म रे। 
ज्ञान  बिना धर्म श्रद्धा न प्रगटे, कज्ज अकज्ज न जाणे। 
कुगुरु सुगुरु गुणी अगुणी सरखा, ज्ञान बिना एकतोणे रे। 
अज्ञाने हेय ज्ञेय उपादेय, जाणे न षट्-द्रव्य भाव।
भेदाअभेद विचार न होवे,ज्ञान नो प्रगट प्रभाव रे। 
ज्ञान आराधो न ज्ञान विरोधो
,साधो सुख अभिराम 
ज्ञान-भक्ति युक्ति मनरगी, जिम लहो ध्रुव विश्राम रे। 
भूतिनगरना भव्य श्रद्धालु अक्षयनिधि तप साधे।
यथाविधि किरिया चित चंगे, सम्यक्त्व ज्ञान आराधे रे। 
ज्ञान से सूरि यतीन्द्रपद पामे घर-घर मंगलाचार। 
रस नव निधि रूप-चातुर्मासे, वरत्या जयजयकार रे। 
      ऊँ ह्रीं श्रीसुरासुरनरवासवमहिनाय परमात्मने नमः।अनंतवस्तुप्रकाशकं प्रबलतराSज्ञानमहीधरभेदकं श्रीज्ञानपदं कलशन्च श्रीवासचूर्णेर्यजामहे स्वाहा। “
  यह मन्त्र बोलकर वासक्षेप से ज्ञान की पूजा करना और नैवद्य,चावल, धूप, दीप, रूपानाना चढाना। बाद में कलश त्रिगड़ा के सामने खड़े रह कर हाथ जोड़ के प्रार्थना रूप से नीचे के पीठि-दोहा बोलना। 
सुखकर शंखेश्वर नमी, थुणस्युं श्रीश्रुत  नाण।
चउ मूंगा श्रुत एक है, स्वर-पर प्रकाशक भाण।।1।।
अभिलाष्य अनंत में भागे रचिया जेह।
गणधरदेवें प्रणमिया, आगम- रयण अछेह।2।
इम बहुली वक्तव्यता, छ ठाणवडिया भाव। 
क्षमाश्रमण भाष्ये कह्या, गोपय सर्पि जमाव।।3।।
सेश थकी श्रुत वरणवुं, भेद भला तस वीश।
अक्षयनिधि तपना दिने, खमासमण ते वीश।। 4।। 
सूत्र. अनंत अर्थे सहित, अक्षर अंश लहाय।
श्रुत केवली केवलीपरे, भाषे श्रुत पर जाय।5।
      फिर खमासमणा पूर्वक नीचे के दोहा बोलना और प्रत्येक दोहा के अन्त में प्रदक्षिणा   देना। 
इगसय अडवरीस स्वरतणा, तीहां अकार अढार। 
श्रुत-पर्याय समास में,अंश असंख्य विचार।1।
“श्री-श्रुतज्ञान ने नित नमो,भाव-मंगलने काज।
पूजन अर्चन द्रव्यथी, पामो अविचल राज।।”
बतीस वर्ण समात है, एकज श्लोक मझार। 
जे मांहि इक अक्षरग्रहे ते अक्षर-श्रुत सार।2।
क्षयोपशम भावे करी बहु अक्षरना जेह। 
जाणे ठाणाॅग आगले, ते श्रुतनिधि गुण गेह।3।
कोडि एकावन आठ लख,अडसल इकासि हजार। 
चालीस अक्षर पद तणा,कहे अनुयोग दुवार।4
अर्थान्ते यहाँ पद कह्युं, जहाॅ अधिकार ठराय  ते पद श्रुतने प्राणमतां, ज्ञानावरणि हठाय।5।
अढाई हजार पदें करी, अंग प्रथम सुबिलास।
दुगुणा श्रुत बहुपद ग्रहे,चरण ते श्रुत समास।6
पिंडप्रकृतिमां इक पदे, जाणे बहु अवदात।
क्षयोपशमनी विचित्रता, तेहज श्रुत संघात।7।
पंचोतर भेदें करी, स्थितिबन्धादि विलास।
कम्मपयडी पयडी ग्रहे, श्रुत संघात समास।8।
गत्यादिक जे मार्गणा, जाणे तेहमा एक। 
विवरण गुणठाणादिके,तस प्रतिपति विवेक।9
मार्गणा पद बासठे, लेश्या आदि निवास। 
संग्रह तरतम योगसे ते प्रतिपति
समास। ।10।।
संतपदादिक द्वार में, जे जाणे शिव-लोक।
एक दोय द्वारें करी, श्रद्धा श्रुत अनुयोग।11।
वली संतादिक नव पदे, तिहाॅ मार्गणा भास।
सिद्धतणी स्तवना करे,श्रुत अनुयोग समास।12।
प्राभृत-प्राभृत श्रुत नमु, पूरवना अधिकार।
बुद्धि प्रबल प्रभाव से,जाणे इक अधिकार।13
प्राभृत-प्राभृत श्रुत समा, साभिध लब्धि विशेष। 
बहु अधिकार इस्या ग्रहे, क्षीराश्रव उपदेश।14
पूरव गत वस्तु जिके, प्राभृत-श्रुत ते नाम ।
एक प्राभृत जाणे सुनि,तास करूं परणाम।15
पूरव लब्धि प्रभाव से प्राभृत-श्रुत सुसमास।
अधिकार बहुला ग्रहे, पदानुसार विलास।16
आचारादिक नाम से, वस्तु नाम श्रुतसार।
अर्थ नाना विध संग्रहे,ते पण इक अधिकार17
दुगसय पणविस वस्तु है, चौद पूर्वनी सार।
जाणे तिणने वंदना, इक श्वासे सो वार।18
उत्पादादिक पूर्व जे, सूत्र अर्थे इक सार।
विद्या मन्त्र तणो कह्यो, पूरव श्रुत भंडार।19
बिन्दुसार लग जे भणे, तेहज पूर्व समास। 
श्री शुभ वीरना शासने, होजो ज्ञान प्रकाश।20
     प्रदक्षिणा पूर्ण होने के बाद तप-कारक सभी श्रावक-श्राविकाओं को हाथ की अंजलि में चावल भर कर और उसके ऊपर यथाशक्ति नाणा रख कर-
सद्ज्ञान-नीर अगाध से नित विश्व में है जो बड़ा।
पद्यरचनाअमल-पंक्तियों से, लहर लेता है खड़ा। ।सच्चूलिका-मणिरत्न जिसमें, पूरित अपरम्पार है ।
दूर्लंध्य आगम अम्बुनिधि को नमन वारम्वार है।।1।।
ज्ञानवसु सम धन है न जगमें, आश जीवित सम नहीं। 
समता सम चौख्य है न कोई, लोभ-सा दुख है नहीं। ।
अतएव विभुवर!दीजिए अब , ज्ञानधन शम सुख बड़े। 
है आश यह न निराश करिये, शरण में हम आ पड़े। ।
ऊॅ ह्रीं नमोअर्हते परमात्मने श्रीअक्षयज्ञानपदाराधनाय साक्षताजंलिभिः कलशं परिपूजयामि स्वाहा। 
ऐसा बोलकर अजली-भृत चाॅवल कलश में डाल कर उसका मुख बांध कर आरती उतारना। 
इस तप के दिनों में प्रतिदिन प्रातःकाल 10या 11 बजे उपर्युक्त विधि करना, प्रातःकाल प्रतिक्रमण करके जिनालय में पूजा किए बाद और संध्या को देवसिक- प्रतिक्रमण के पहले छः थुई से उत्कृष्ट देववंदन क्रिया करना। एकासणा किये बाद पोसहविधि में लिखे मुताबिक संवर का चैत्यवंदन और संध्या का प्रतिक्रमण करके सोते समय संथारापोरिसी भी भणा ली जाय तो अच्छा ही है। 
       अक्षयनिधितप -चैत्यवंदम् 
चौद सहस्त्र मुनिना धणी, शासनपति सुखकार।
चौसठ सुरपति सेवता,जिनशासन जयकार।1
श्रीजिनवाणी सांभली, यहे त्रिपदी गणधार।
जिन-आगम रचना करे
जगजनने हितकार। ।2।।
श्रुत में बहुविध भाषिया,तप प्रभाव विस्तार। 
आराधे चउ संघ जे, थावा भवजल पार। 3।।
तपश्रेणी मांहे कह्यु, अक्षयनिधि तप सार। 
सकल सिद्धि हेते करे , पुण्यवन्त नर- नार।4।
सविधि तप आराधिये, श्रुत भक्ति श्रीकार।
जिनपूजा वन्दन करे, आवश्यक दो बार। 5।
पाले शील स्वभाव में,वरते शुद्धाचार। 
श्रीश्रुतनी ऊपासना, गुणणो दोय हजार। 6।
श्री जिनेन्द्रना आगमे,भाष्यो सकल विचार।  सूरियतीन्द्र सुसंग से, करे सफल अवतार ।7।
             अक्षयनिधितप – स्तुतिः।
अक्षय शिवसुख संपति कारण, अक्षयनिधि तप साधोजी। 
श्रीजिनवाणी ह्रदये आणी श्रीश्रुतज्ञान आराधो जी।।
विधि मनुशुद्धे तप आदरने, पूरण जग जस पावो जी ।
इह भव पर-भव ऋद्धि वृद्धि, अन्ते मोक्ष सिधावोजी। ।1।।
भाद्रववदि तिथि चतुरथी दिनथी ए तप आरंभ कीजेजी।
एकासणा तपस्या दिन-पंदर, चोथ चउभत पच्चक्खीजेजी।।
उभयकाल आवश्यक वंदन, जिनपूजना त्रिहूँ  काले जी।
ऊँ ह्रीं नमो नाणस्स ए पदनो गुणणो गिण अघटालोजी। ।2।।
काउस्सग्ग वीश लोगस्स-एकावन, स्वस्तिक करी चंगेजी।
कुम्भस्थापन विधि अक्षत भरीने, मंगल गावो उमंगेजी।।
तूर्य वरस लग ए तप कीजे, उत्सव आनंद रंगेजी।
सूरियतीन्द्र नवविधि भवि पामो, तप-प्रभाव प्रसंगेजी। ।3।।
 
अक्षयनिधितप-स्तवने 
 
         है आनंद बधाई, केवल ; ए राह-
    अति आनंदकारी, अक्षयनिधि-विधिसुं। 
     भवि जन कीजिये।। अति.।।टेर।।
श्रुतभक्ति भवि भावे करिये, सुख संपति दातार। 
ऋद्धि समृद्धि निर्मल बुद्धि, रहे अखूट भंडार रे।।अ.।।1।।
ईर्ष्या-बुद्धि कर्म बंधाना, हो तपसे निस्तार।
सुंदरी नारी संपति पामी, जस जग में अणपार रे।।अ.।।2।।
नरभव धण कण कंचन पामो, सफल होय संसार। 
उतरोतर अड कर्म खपाई, पामे भवनो पार रे।।अ.।।3।।
अज्ञान-तिमिर कुबुद्धि नाशक, आतमने हितकार। 
ज्ञानराधन सद्गुरु सेवा, भवभय दुख हरनार रे। ।अ .।।4।।
भूतिनगरना धर्म श्रद्धालु, हलुकर्मी नर-नार।
अतिसुंदर अक्षयनिधि तपकर, करे जिनभक्ति उदार रे। ।अ.।।5।।
ऋषभ-वीर जिनवर सुपसाये, वरत्या जय जयकार ।
दरशन-नव निधि-एक संवत्सर, आनंद विविध  प्रकाररे। ।अ.।।6।।
पांचो मास लग धर्म कार्य, जिनपूजा धर्म प्रचार। 
विजय यतीन्द्रसूरीश्वर साथे, सोहे षट् अणगार रे। ।अ.।।7।।
        सिद्धारथना रे नंदन वीनवु;ए राह-
        अक्षयनिधि तप कीजे भविजना,
        इहभव परभव सुखकार। ।अ.।।टेर।।
चार बरस लग तप रराधना,करिये भाव उदार।
तपसेवनथी रे लहो सुख संपदा,पामो भवनो रे पार। ।अ.।।3।।
भाद्रव मासनी कृष्ण चतुर थी,प्रारम्भ ए तप सार।
जिनपूजन गुरुभक्ति कीजिये,प्रतिक्रमण दोय वार। ।
सुदि भाद्रव तीज दिन पंदरा लगे एकासणा तप धार।
दिन संवत्सरी उपवासे रही, पारणे स्नात्र श्रीकार। ।
पर ईर्षाथी रे कर्मबंधन हुओ, दुःख लह्यो अणपार। 
तप आराधी रे कर्मने छेदीयुं, परतिख सुंदरी नार।।
कुंभ सुवणीय अक्षतनो भरी, प्रतिदिन मुष्टी विचार। 
श्रीफल पुष्पनी माल आरोपीने,आवे श्रीजिन द्वार।।
जिन आगल कुंभस्थापी द्रव्यने, गावो मंगल चार। 
जिनपूजा श्रुतभक्ति कीजिये, आनंद विविध प्रकार। ।
रात्रीजागरण जिनगुण गाइये, वरछोड़ो मनुहार। 
अक्षयनिधि तप विधि संक्षेप में, कही भविजन हितकार। ।
सद्गुरु मुख से रे विस्तारे ग्रहे, तपकरी आतम आधार।
मरुधरदेशे रे ए तप आदयों,भूतिनगर मझार।।
रस-नव-नारद-विधु सुदी चतुरथी मार भाद्रव रवीवार।
आदि जिनवर वीरना सहायथी, सूरियतीन्द्र पद धार।।
Translate By Chetna Jain, Chennai

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