राजस्थान के पाली जिले में सादड़ी से दस किलोमीटर दूर दक्षिण-पूर्व में मघई नदी के किनारे प्राकृतिक सुषमा से आच्छादित आरावली पर्वतमालाओ की सुरम्य गोद में स्थित राणकपुर का भव्य मंदिर मध्यकालीन शिल्प वैभव का दर्शनिय व अनूठा चौमुखा मंदिर है। लगभग पचास हजार वर्गफीट में बना यह तिमंजिला मंदिर प्रथम जैन तीर्थंकर श्री ऋषभदेव (आदिनाथ) भगवान को समर्पित है। इस मंदिर का निर्माण मेवाड़ के महाराणा कुंभा के शासनकाल में आचार्य सोमसुन्दरसूरिजी की प्रेरणा से धरणाशाह और रत्नाशाह नामक पोरवाल जैनों ने संवत १४३३ में मंदिर की नींव रख कर आरंभ किया था। राणकपुर मंदिर के निर्माण के संबध में कहा जाता है कि धरणाशाह ने एक रात में स्वप्न देखा जिसमें नलिनीगुल्म जैसा देवविमान देखने पर उसके मन में भाव उत्पन्न हुए कि इसीप्रकार का मंदिर बनाया जाय। अपने संकल्पको पूरा करने के लिए धरणशाह ने अनेक शिल्पियों से नक्शे मंगवाये किन्तु किसी शिल्पी का नक्शा उनके स्वपनानुसार नहीं बना, अन्त में मुण्डारा निवासी दीपा नामक शिल्पी ने सेठ के स्वप्न को रेखांकित कर प्रस्तुत हुआ जिसे देख कर धरणाशाह ने मंदिर निर्माण का कार्य दीपा को सौंप दिया। धरणाशाह उन दिनों मेवाड़ के महाराणा के पास मंत्री पद पर थे, और उन्होंने महाराणा से जमीन की मांग की।
महाराणा ने मंदिर के लिए भूमि भेंट करते हुए माद्री पर्वत-माला की तलहटी में मंदिर निर्माण करने के साथ ही वहां एक नदर बसाने की भी सलाह दी। मंत्री धरणाशाह ने वहां मंदिर का निर्माण आरंभ करने के साथ नगर भी बसाया जिसका नाम राणपुर रखा जो कालान्तर में राणकपुर के नाम से प्रसिद्ध हुआ। मंदिर की आधारशिला रखते समय नींव में सात प्रकार के धातु, कस्तुरी और अनेक मूल्यवान चीजें डलवाकर शिल्पी दीपा ने धरणाशाह की भावना तथा उदारता की परीक्षा भी ली थी। इसके निर्माण में प्रधान शिल्पी दीपा के निर्देशन में सैकड़ो सिद्धहस्त शिल्पीयों ने ६५ वर्ष तक निरन्तर श्रम करके अपनी छैनी व हथौड़ी से मूक पत्थर को सुन्दर आकार दिया और भक्ति की रसधारा से ओतप्रोत कर दिया। धरणाशाह ने इसके निर्माण पर ९० लाख स्वर्ण मुद्रा व्यय की। निर्माण कार्य चलते जब, पचास वर्ष पूरे हो गये, फिर भी मंदिर का काम पूरा नहीं हुआ तो वृद्धावस्था को देखते हुए श्रेष्ठी धरणाशाह ने अपने जीतेजी मंदिर की प्रतिष्ठा करवाने का निश्चय किया और मंदिर के मुख्य शिलालेख के अनुसार वि.स. १४९६ में आचार्य सोमसुन्दरसूरिजी के सानिध्य में प्रतिष्ठा का कार्य सम्पन्न हुआ। कहा जाता हे कि धरणाशाह की अन्तिम घड़यों में उनके भाई रत्नाशाह ने मंदिर का निर्माण उनकी अभिलाष के अनुसार पूर्ण करवाने का वचन दिया। तथा दस वर्षों तक मंदिर का काम चालू रख कर अधूरे मंडपों का काम पूरा करवाया।
१४४४ खंभो पर टिका यह भव्य तिमंजिला मंदिर स्थापत्य और मूर्तिकला का उत्कृष्ट नमूना है। इसमे २४ मंडप व ५४ देवकुलिकाएं है। चारों दिशाओं में एकरुपता लिये हुए चार द्वार होने के कारण इसे चौमुखा मंदिर भी कहते हैं। प्रत्येक द्वार से प्रवेश करनेपर आगे सभामंडप और मेघनाद मंडप सभी ओर समानता का प्रतीक है। तोरणद्वारयुक्त ऊंचे ऊंचे खंभे तथा उनकी लम्बी कतारें बड़ी आकर्षक लगती है। इस चौमुखे मंदिर में प्रवेश करने के लिये पश्चिमी द्वार खुला रहता है, यहां श्रृंगार चौकी से आगे चलने पर सभामंडप और मेघनाद मंडप आते हैं जिनकी कलापूर्ण छत और गुम्बज अपने आपमें विशेषता लिये विद्यमान है। मूल मंदिर की चारों दिशाओं में स्थापित मूलनायक भगवान ऋषभदेव की नयनाभिराम प्रतिमा के दर्शन कर अद्भुत अनुभूति होती है – जैसे आज सबकुछ पा लिया हो। मंदिर के सभी खंभों की बनावट बेलबूटों से सुसज्जित है लेकिन सभी एकदूसरे से भिन्न है। शिल्पियों की कलाकौशल के प्रतीक स्वरूप यहां एक छत में लगा कल्पवृक्ष का पत्ता और सहस्त्रनाग की अलंकारिक बनावट के साथ ही धरणेन्द्र नाग-नागियों के छत्रो से आच्छादित भगवान पार्श्वनाथ की प्रतिमा की नक्काशी आश्चर्यजनक की गयी है। मेघमण्डपों एवं गवाक्षों में लटकती पाषाण झूमरें व उनमें उत्कीर्ण फूलपत्तियां भी आकर्षक है। मंदिर की परिक्रमा में विभिन्न देवी देवताओं की प्रतिमांए ललित भावों से युक्त होने के कारण दर्शक मुग्ध हो जाता है इनमें सरस्वति, विष्णु, दक्ष सहित पशुपक्षियों तथा बेलबूटों का सुन्दर अंकल हुआ है। मध्यकालीन काव्य में वर्णित नारी की समस्त भावभंगिमाओं को यहां शिल्प से अंकित की गयी है। श्रृंगामग्न, सीमान्त में आभूषण सजाते, सुकोमल पांव में चुभे कांटे को निकालते हुए, एवं पांव की पायल बांधते हुए, शिशु के साथ क्रीड़ा में निमग्र, संगीत में लीन आदि। मंदिर के प्रवेश में प्रथम मेघनाद मण्डप में एक स्तम्भ पर सेठ धरणाशाह की एवं शिल्पी दीपा की छोटी छोटी आकृतियां बनी हुई है। इसी प्रकार एक अन्य सभा मण्डप के खंभे पर अंकित शिलालेख से यहां मुगल सम्राट अकबर के आने की पुष्टी होती है। वि.सं. १६११ के इस शिलालेख में अकबर द्वारा इस मंदिर को सुरक्षित रखने एवं सिके आसपास के क्षैत्र में आखेट का निषेध करने का फरमान है। मंदिर के भूतल में भी कुछ कमरे बने हुये हैं, धरणाशाह ने उन दिनो लुटेरों व हमलावरोंसे प्रतिमाओं तथा मंदिर का सोना चान्दी सुरक्षित रखने के लिये भूमिगत कमरों का निर्माण करवाया था। मंदिर की दुसरी मंजिल पर भी चारों दिशाओं में आदिश्वर की प्रतिमाएं स्थापित है, इसी प्रकार तीसरी मंजिल पर संभवनाथ की चार मूर्तियां विराजमान है। मंदिर के विशाल शिखर बजती घंटियों से ेक अजीब सा वातावरण बनता है। जैसे मंदिर की छत पर शिखरों की कतार यहां की शिल्पकला की कुशलता का प्रतीक है ठीक वैसे ही नीचे मंदिर में भी जिधर द्रष्टि डालो उधर एक जैसी मंदिर, एक जैसे खंभे, एक जैसे मण्डप, एक जैसे गुम्बज एवं एक जैसी प्रतिमाएं मन मोह लेती है। इस मंदिर को चतुर्मुख प्रासाद के अतिरिक्त धरणविहार, त्रैलोक्यदीपक प्रासाद एवं त्रिभुवन विहार के नाम से पहचाना जाता आ रहा है। मंदिर में एक रायण वृक्ष एवं भगवान ऋषभदेव के चरण उनके जीवन तथा शत्रुंजय तीर्थ का स्मरण दिलाते हैं। संवत १९७२ में आचार्यदेव श्री विजय नेमीसूरिश्वरजी म.सा. के सदुपदेश से श्री आणंदजी कल्याणजी पेढ़ी अहमदाबाद ने इस मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया और संवत २००९ में श्रीमद् उदयसूरिश्वरजी म.सा. एवं श्रीमद् नंदरसूरीजी म.सा. के करकमलों द्वारा श्री संध सादड़ी ने इसकी पुनप्रतिष्ठा करवाई।