चउगइऽणंतदुहानल – पलित्त भवकाणणे महाभीमे । सेवसु रे जीव ! तुम , जिणवयणं अमियकुंडसमं ॥१०२ ॥ : अर्थ : हे जीव । चारगतिरूप अनन्त दुःख की अग्नि जलते हुए महाभयकर भववन में अमृतकुण्ड के समान जिनवाणी का तू सेवन कर ।। 102 ।।