72.Varkana Parshwanath

72.Varkana Parshwanath

72.Varkana Parshwanath

Mulnayak: 30 cms. high, white – coloured idol of Bhagwan Parshvanath in the Padmasana Posture. There is an umbrella of 7 hoods over the head of the idol.

Tirth: It is in the centre of the village Varkana.

Historicity: In ancient times, this place was called Vankanakpur, Varkanakgarh or Varkanaknagar. In ancient times, Varkana was a large and prosperous city with many Jain temples. Caught in clutches of time, these splendid temples were buried underground. The idol of Varkana Parshvanath is very ancient. The idol was found by a Shephered buried in the ground. The Jain sangh built this splendid temple and installed the idol. There is an inscription of the year 1211 of the Vikram era mentioning this temple. In the 16th century, during the reign of Maharana Kumbha, a Shresthi of Shrimalpur built a beautiful temple with 52 small temples and installed the idol. Pilgrim tax which was collected at that time was cancelled by Rana Jagatsingh of Mewad on the advice of Acharya Shri Vijaydevsuri. The temple was renovated in V.S. 1981.The idol was reinstalled in the year 2014 of the Vikram era. One bows down to Bhagwan Varkana Parshvanath in the twelfth verse of ‘Sakal – tirth – vandana’ of Rai Pratikramana, A big fair is held on the tenth day of the dark half of the month of Paush every year. This is one of the temples of Ranakpur Panchtirthi.

Other Temples: There are no other temples.

Works of art and Sculpture: The art of the idol here has a special significance. The sculpture on the summits presents an extraordinary illustration of art. In V.S. 1707 an artistic Parrikar was built. The artistic work done on the pillars is worth seeing.

Guidelines: Rani, the nearest railway station, is at a distance of 3 kms. and Falna is at a distance of 20 kms. Bus service and Private vehicles are easily available. Dharamshala and Bhojanshala facilities are available here. There is a Jain Boarding School here.
varkana-jain-temple
Scripture: A mention of this temple has been made in “Anand Sundar Granth”, in “Vikram Charitra Panchdand”, in “365 Shri Parshva Jin Naammala”, in “Shri Sankheswar Parshvanath Chand”, in”Shri Bhateva Parshvanath Stavan”, in “Chaityaparipati”, in ” Tirthmala”, etc. There is an idol of Varkana Parshvanath in Jiravala Tirth and in Kalikund Parshvanath temple in Santacruz, Mumbai.

Trust: Shri Varkana Parshwnath Jain Shwetambar Tirth Pedhi, Varkana: 306 601, District: Pali, Rajasthan State, India. Phone: 02934 – 222257


श्री वरकाणा पार्श्वनाथ – वरकाणा (राज.)

महाराणा कुंभा के समय श्रीमालपुर के शेष्टि ने इस मंदिर का जिनोर्द्वारा करवाया था |प्रतिमाजी पर कोई लेख नही है |दरवाजे के बहार वि.सं. १६८६ का एक शिलालेख है |यह प्रतिमा लगभग वि. सं. ५१५ में प्रतिशिष्ट हुई मानी जाती है |यह तीर्थ गोडवाड पंचतीथी का एक तीर्थ माना जाता है |”सकल तीर्थ सोत्र ” में इस तीर्थ का उल्लेख है | प्रतिवर्ष पौष कृष्णा १० को मेला लगता है |
जैन साहित्य में तीर्थमालाओं में और “सकल तीर्थ स्तोत्र” में वरकाणा का वर्णन आता है| संस्कृत में एक स्तोत्र “वरकनक शंख विद्रुम” भी है जो वरकाणा कम महत्त्व बताता है| सकल तीर्थ की वंदना के समय वरकाणा का महत्तव इस प्रकार बताया गया है|
सकल तीरथ वन्दु कर जोड़, जिनवर नामे मंगल कोड…|
अंतरिक्ष वरकानो पास, जीरावलों ने थमभण पास ||
इस स्तोत्र में अनेक चमत्कारिक तीर्थो की वंदना की गई है| इस तीर्थो में अंतरिक्ष पार्श्वनाथ, वरकाणा पार्श्वनाथ, जीरावाला पार्श्वनाथ स्तंभन पार्श्वनाथ को सर्वमान्य एवं उत्कुष्ट तीर्थ बताये गए है|
संवत् १६१८ विक्रम की पौष वदी सातम मंगलवार को तपागच्छचार्य जगत गुरु हीरविजयसूरीजी ने संघ समेत अहमदाबाद से इस तीर्थ एवं पंचतीर्थी की यात्रा की थी, उन्होंने यहाँ पौष दसमी का अट्टम तप अनुष्ठान करवाया था|
जगदगुरु हीरविजयसूरीजी का महत्तवपूर्ण समय वरकाणा एवं इसके पास-पड़ोस नाड़ोल एवं नारलाई में गुजरा| संवत् १६०७ में नारलाई में इन्हें पंडित की पदवी प्राप्त हुई और यहीं संवत् १६०७ में इन्हें वाचक उपाध्याय की पदवी प्राप्त हुई|
इस मंदिर का भव्य रूप गुजरात के सोलंकी परमाह्रत कुमारपाल के समय में प्राप्त हुआ होगा क्योंकि मंदिर का स्थापत्य एवं वास्तुरचना गुजरात की चाकुल्य शैली की है एवं कुमारपाल कालीन अन्य मंदिरों से मिल्त्ति-जुलती है| इस शैली की विशेषता यह है की इसकी जगती एयर पीठिका धरती से लगती हुई होती है और खूब खम्भे और वे भी कोरणी से भरे हुए होते है| मंदिर भी निचाई पर ढका हुआ होता है और मंडप काफी उंचा| मेवाड़ के कुम्भाकालीन मंदिरों की पीठिका बहुत ऊँची है, जैसे राणकपुर की| विक्रमी संवत् १२०० के बाली जैन मंदिर के शिलालेख से यहाँ सोलंकियान के शासन की पुष्टि होती है|
वरकाणा का यह मंदिर आज किले-नुमा दिखाई देता है| इसे यह रूप महाराजा कुम्भा के समय में प्राप्त हुआ| मेवाड़ के महाराजाओं के कई लेख, ताम्रपट्ट व परवाने मंदिर की पेढ़ी में सुरक्षित है| मंदिर जी की पूर्व उत्तरी दरवाजे व कोट महाराणा कुम्भा के समय में बने थे| उस समय की सामरिक आवश्यकतानुसार मंदिरों को किले-नुमा बना दिया|
प्रभु प्रतिमा की कला अपना विशिष्ट स्थान रखती है |शिखरों पर बनी शिल्पकला भी अपनी अनुपम कला का उदाहरण प्रस्तुत करती है |

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