Life of Jain Acharya Aatmaramji Maharaja
DATE OF BIRTH CHAITRA SUDI 1, VIKRAM SAMVAT 1894
PLACE OF BIRTH VILLAGE LEHRA, TOWN ZIRA, DISTRICT FEROZEPUR |(PUNJAB)
FATHER’S NAME SHRI GANESH CHAND
MOTHER’S NAME SMT. ROOPA DEVI
ORIGINAL NAME AATMARAM
DIKSHA VIKRAM SAMVAT 1910 (YEAR 1853) IN MALERKOTLA (PUNJAB) AS STHANAK VASI SHDHU
VIKRAM SAMVAT 1932 (YEAR 1875) IN AHEMDABAD AS SHWETAMBAR MOORTI PUJAK SADHU
ACHARYA PADVI VIKRAM SAMVAT 1943 (YEAR 1886 ), IN PALITANA (GUJARAT)
DEMISE JYESHTHA SUDI 7, VIKRAM SAMVAT 1953 ( YEAR 1895) AT GUJRANWALA (NOW PAKISTAN).
TITLES BESTOWED NAVGUG NIRMATA, NAYAYAMBHONIDHI, PUNJAB DESHODHVARAK
Shri Vijyanand Suri Ji Maharaj was the first leader and guru of the ‘mandir margi’ sect of the Shwetambras. He is regarded as the one of the greatest and the first gurus of the Jains who advocated the worship of idols. He faced many hardships and oppositions in his life. As a child, he possessed extremely sharp memory and an intellectual bent of mind. Inspired by Shri Jiwan Ram Ji Maharaj, he initially took ‘sthanak vasi’ diksha at the age of 18.
For next ten years he spent his time studying the Jain shastras under the guidance of his guru – Shri Jiwan Ram Ji. He was capable of memorizing 300 shlokas in a single day. Vikram Samvat 1920 (year 1863) was a turning point in his life when he came in contact with Shri Ratanchand Ji Maharaj in Agra. Conversations with him brought about changes in his views in favour of ‘moorti puja’ (idol worship). On the basis of some ancient Jain scriptures and granths, Shri Ratanchand Ji proved to him that idol worship existed many centuries ago. Those were the days, when most of the Jain saints were opposing idol worship.
Aatmaram Ji came to North India and started preaching about his change in views. In the year 1871, he inspired and made 20 sadhus and around seven thousand people of his views. In the year 1874, he discontinued the use of ‘moonh-patti’ (cloth used to cover the. mouth). In 1875, he took diksha again in Ahemdabad from Shri Buddhi Vijay Ji Maharaj – this time in the Shwetambar ‘moorti pujak’ sect and took the name of Anand Vijay. Now began a new chapter in the life of Shri Anand Vijay Ji. He went on pilgrimage to famous Shatrunjay Teerth. Then, for the next 19-20 years, he spent time penning religious books and composing Jain pujas. He also got many Jain temples made across north and west India (including present day Pakistan).
In 1886, he was bestowed with the title of ‘Acharya’ in Pa1itana (Gujarat) in the presence of 35,000 people from across India and became ‘Shri Vijayanad Suri’. The title of ‘Nyayambhonidhi’ was conferred upon him by the people of Jodhpur in 1883. In the year 1892, he was invited to Chicago (USA) for ‘Vishwa Dharma Parishad’ – for which he wrote ‘Chicago Prashanottar’ (book containing questions and answers on Jainism) and sent Shri Vir Chand Raghay Ji Gandhi as his representative. He passed away at the age of 59 During his lifetime, he wrote 10 granths and composed 7 types of pujas for the Shwetambar moorti pujak sect.
पंजाबदेशोद्धारक नवयुग निर्माता
गुरु आत्म
के जीवन संबंधी 10 महत्त्वपूर्ण बातें
1. उनका जन्म लहरा (जिला जीरा, पंजाब) में क्षत्रिय परिवार में हुआ। बचपन से वे अजैन थे, किन्तु पुण्य प्रभाव से वे न केवल जैनो की संगति में आये बल्कि जैन आचार्य के रूप में शासन की महती प्रभावना की।
2. उनकी दीक्षा स्थानकवासी संप्रदाय में हुई थी किन्तु सत्य के प्रति अपनी जिज्ञासा एवं उत्कण्ठा के हेतु से उन्होंने आगमों का गहन अध्ययन किया एवं 22 वर्षो के बाद श्वेताम्बर मूर्तिपूजक परंपरा में संवेगों दीक्षा ली।
3. उनका नाम आनंद विजय था। जैन समाज में आचार्य सिंह सूरि जी के पश्चात *235 वर्षो तक कोई आचार्य नहीं हुआ। पालिताना में सेठ नरसी केशवजी धर्मशाला में 35000 की विशाल जनमेदिनी के बीच आनंद विजय जी (प्रचलित नाम आत्माराम) को आचार्य पदवी प्रदान की गयी तथा वे विजयानंद सूरि के नाम से जाने गए।
4. गुरु आत्म की चित्रकला बाल्यकाल से ही उत्तम थी। संयम अवस्था में भी एक बार उन्होंने कहीं वर्द्धमान विद्या का पट्ट देखा एवं उपाश्रय आकर वैसा ही हूबहू चित्रित किया। वह आज् लुधियाना के जिनमंदिर में सुरक्षित है।
5. पाश्चात्य विद्वानों को गुरुवर आत्म ने अपने ग्रंथों से अत्यंत प्रभावित किया। अनेक अंग्रेज़ विद्वान उनसे पत्राचार करते थे। इसी कारण शिकागो विश्व धर्म सम्मलेन में उन्हें जैन धर्म का प्रतिनिधित्व करने का आमंत्रण दिया। किन्तु गुरु आत्म ने वीरचंद राघव गांधी को प्रशिक्षित करके भेजा।
6. पंजाब क्षेत्र में मूर्तिपूजा का प्रचार कर उन्होंने जैनधर्म की प्रभावना की। उन्होंने स्वयं कई जिनमंदिरो की प्रतिष्ठा कराइ तथा कई प्राचीन प्रतिमाएं गुजरात से पंजाब भिजवाकर सम्यग् दर्शन प्रदान किया।
7. विजयानंद सूरीश्वर जी ने पंजाब में अत्यंत उपसर्गों एवं परिषहो को सहन किया केवल हमारे पूर्वजो तक शुद्ध धर्म पहुंचाने के लिए। वो भी दिन थे जब उन्हें गोचरी नही दी जाती थी। *एक बार तो 17 साधुओ ने केवल 1 कटोरी लस्सी से दिनभर गुज़ारा किया।
8. एक बार कुछ स्त्रियों ने उन्हें पालीताणा में यति समझकर स्पर्श कर लिया। उस समय अन्य वडील गुरुओ से परामर्श कर संवेगी आचारवान साधुओ के लिए सत्य विजय जी द्वारा पहले चलायी गई *क्रियोद्धार स्वरुप साधू साध्वियो के लिए पीली चादर का आरम्भ किया।*
9. गुरु आत्म ने बड़ोदा के जानीशेरि उपाश्रय में छगन की प्रतिभा देखि । उसी छगन को उन्होंने दीक्षा पश्चात् वल्लभ विजय नाम प्रदान किया तथा योग्यता देखते हुए पंजाब का विशेष दायित्व गुरु वल्लभ को प्रदान किया।
10. गुजराँवाला में 59 वर्ष और 59 दिन की आयु में गुरु आत्म का कालधर्म हुआ। उन्होंने गुरु वल्लभ को अंतिम सन्देश दिया कि “वल्लभ ! अब मैंने जिनेश्वर के मंदिर स्थापित किये हैं । तू सरस्वती के मंदिर भी स्थापित करना”
“लो भाई अब हम चलते हैं और सबको खमाते हैं” के शब्द कह अर्हम की ध्वनि के साथ वे काल कवलित हुए..