Guru Vallabh Bhavanjali Saptah

Guru Vallabh Bhavanjali Saptah

Guru Vallabh Bhavanjali Saptah

गुरु वल्लभ भावांजलि सप्ताह

प्रभु पार्श्वनाथ मुझ पकड़ो हाथ

रचनाकार : आचार्य विजय वल्लभ सूरि जी
व्याख्याकार : पंन्यास चिदानंद विजय जी

पुरुषादानीय श्री पार्श्वनाथ परमात्मा की स्तवना और आत्म-आलोचना की अनुपम कृति के रूप में आचार्य विजय वल्लभ सूरीश्वर जी ने इस स्तवन की रचना की । शब्दों में जितनी गहराई है उससे अधिक उसके भावों में है । यहाँ संक्षेप में व्याख्या की जाती है ।

गुरु वल्लभ फरमाते हैं कि अनाथ यानि जिसका कोई नाथ ( स्वामी ) नहीं है । हे प्रभु ! मैं अनाथ हूँ । इस संसार में मेरा कोई स्वामी नहीं है , मेरा कोई रक्षक नहीं है । आप ही मेरा हाथ पकड़ो और मुझे सनाथ करो । मैं आपका दास ( सेवक ) बनना चाहता हूँ । आप बस मुझे अपना बना लो , मुझे खुद से जोड़ लो ।

पहले अंतरे में गुरु वल्लभ फरमाते हैं कि हे प्रभु ! आजतक मैंने अनेकों जन्म लिए हैं , अनेकों कर्म किये हैं । मैं हमेशा से दुर्गुणों और दोषों से भरा रहा हूँ । मुझे लगता था कि सब मेरे जैसे ही हैं लेकिन जब मैंने आपको देखा तो मुझे एहसास हुआ की आप ही ऐसी विभूति हैं जिसमें केवल गुण ही गुण हैं । और आप तो सिर्फ देना जानते हो , लेना नहीं जानते । है मेरे प्रभु ! अपने ये गुण मुझे भी दान दीजिये ! मुझे अपना बना लीजिए ।

* दूसरे अंतरे में गुरु वल्लभ फरमाते हैं कि मेरे शरीर का रोग होता तो मैं चिकित्सक से इलाज करवा लेता लेकिन मुझे तो आत्मा का रोग है । मेरी आत्मा कर्मों से भारी है , इसलिए मोक्ष नहीं जा पा रही , यही मेरी आत्मा का रोग है और इसे दूर करने का सामर्थ्य किसी चिकित्सक में है तो प्रभु ! वो केवल आप ही हैं । आप मुझे निरोग कर दीजिये । मुझे अपना बना लीजिए ।

तीसरे – चौथे अंतरे में गुरु वल्लभ फरमाते हैं कि प्रभु ने मुझको मेरी विनती का जवाब भी दिया है । वो कहते हैं कि तूने ही मोह -माया आदि दुर्गुणों से प्रेम किया है । तू ही इनमें ख़ुशी रखता है । तुझमें और मुझमे कोई अंतर नहीं है लेकिन तुम्हे भी यदि मुझ जैसे बनना है तो इन सबको छोड़ना ही पड़ेगा । हे चेतन ( आत्मा ) यदि तुम्हें मेरे जैसा बनना है तो जो मैंने किया , वैसा पुरुषार्थ , वैसी हिम्मत तुम्हें भी करनी पड़ेगी । सभी जीवों के प्रति करुणा और आत्मकल्याण की उत्तम भावना भानी पड़ेगी ।

पांचवे अंतरे में गुरु वल्लभ फरमाते हैं की जब व्यक्ति अपनी आत्मा से मिल जाता है तो उसकी भटकन खत्म हो जाती है और यही सच्चा सुख है । इसमें गुरु वल्लभ ने शब्दों का जादू दिखाते हुए अपने दादागुरु आत्म , गुरु हर्ष विजय जी एवं स्वयं – वल्लभ सूरि जी का भी नाम बताते हुए गुरु परंपरा दर्शायी है

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