94.Avanti Parshwanath

94.Avanti Parshwanath

94.Avanti Parshwanath

Mulnayak: 120 cms. high, black-coloured idol of Bhagwan Avanti Parshvanath in the Padmasana posture. There is an umbrella of 7 hoods over the head of the idol.

Tirth: It is in the city of Ujjain near river Kshipra. The temple is 2,300 years old.

Historicity: The ancient name of this city was Avantika Puskarandini and Vishala.This was the ancient capital of Malwa. During the reign of king Sudhanva, this city came to be called as Ujjain. King Samprati, who on the advice of Acharya Aryasuhastisuri, built 1,25,000 Jain temples, installed 1,25,00,000 Jain Thirthankara idols and renovated 36,000 Jain temples was born in this city and made the city proud.  Acharya Aryasuhastisuri with his disciples came to Ujjain and stayed in Bhadra Sethani’s vahanshala. Avanti Sukumar, the son of Bhadra sethani, residing on the seventh floor of his  house, heard the monks reciting some stotras and he was stunned. He got Jatismaran gyan (knowledge about previous birth). He saw that he was a dev of “Nalini Gulm Viman” in his previous birth. He took Diksha immediately with his parents permission at midnight and got his gurus permission to take Santhara. He went near the Kantharika kund and stood in deep meditation. A fox saw muni Avantisukumal and due to previous enemity , killed him. His son Mahakal, under instructions of Arya Suhastisurishvarji, built this splendid temple in memory of his father 250 years after  the nirvana of Bhagwan Mahaveer. The idol of Bhagwan Parshvanath was installed and was called Avanti Parshvanath in his fathers honour. As this temple was built by Mahakal, it came to be known as Mahakal Chaitya. During King Pushyamitra’s (a devotee of Shiva) reign, this tirth became a Mahakal Mahadev (Shiva) temple. Shri  Vriddhivadisuri was displeased with his disciple Kumudchandra and asked him to repent for his sins by travelling incognito. Hearing his preachings, 18 kings became  his followers by becoming Jains. Kumudchandra  came to Ujjain and slept in the Mahakal temple by keeping his legs on the Shivaling. He was beaten for his behaviour by the kings order but nothing happened to him. Instead, the queen was beaten. King Vikramaditya was amazed by this incident. He asked for forgiveness and the reason for this miracle. Kumudchandra started chanting the very impressive Kalyan Mandir Stotra. As he was chanting the 11th verse, a beautiful idol of Bhagwan Parshvanath appeared from the Shivalinga. King Vikramaditya was very impressed by seeing this and he became a follower of Jainism. He gave the name ” Shri Siddhasen Divakar”  to Kumudchandra who became a great Acharya. This Tirth became famous and Jain religion gained prominence.

Other Temples: At present, there are 32 temples. Of these 5 temples are big. The temple of  Adinath in the city is the oldest temple in Ujjain and has a great history. It was here that Shripal and Mainasundari worshipped Bhagwan Adinath and did Navapad Oli and Shripal was cured of his disease. There is a newly constructed temple of Manibhadra Veer also here. There is a Dadawadi opposite the Avanti Parshvanath temple.

Works of art and Sculpture: This idol of Bhagawan Parshvanath is ancient and miraculous. This temple is under renovation at present.

Guidelines:  This temple is at a distance of 1.5 kms. from the main railway  station. Ujjain is at a distance of 56 kilometers from Indore.  Bus service and private vehicles are available here. Dharamshala and Bhojanshala facilities are available here.

Scripture: A mention of this temple has been made in ” Prabhavak Charitra”, in “Shri Vridvadi Praband”, in Tirth Vandana”, in “Tirthmala”, in “Shri Sankheswar Parshvanath Chand”, in “Shri Bhateva Parshvanath Stavan”, in “Shri Parshvanath Naammala” etc. There is a temple of Avanti Parshvanath in Yevala village in Maharashtra. There is an idol of Avanti Parshvanath in Jiravala Tirth, in Kalikund Parshvanath temple in Santacruz, Mumbai and in Bhiladiyaji Tirth.
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Trust: Shri Avanti Parshvanath Jain Shwetambar  Murtipujak  Marwari Samaj Trust, Anant Peth, Dani Darwaja, Ujjain – 456001. State : Madhya Pradesh, India.

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श्री अवंती पार्श्वनाथ

श्री अवंती पार्श्वनाथ – उज्जैन
एक शुभ दिन नलिनी गुल्म-विमान में से एक भाग्यशाली देवात्मा का आयुष्य पूर्ण हुआ… और भद्र सेठानी की कुक्षी में उस देवात्मा का अवतरण हुआ| उसी समय भद्रा माता ने शुभ स्वप्न देखा| धीरे-धीरे समय व्यतीत होने लगा… और एक शुभ दिन भद्रा सेठानी ने एक अत्यंत ही तेजस्वी पुत्र-रत्न को जन्म दिया|
बालक का नामकरण किया गया-अवंतीसुकुमाल ! धीरे-धीरे अवंतीसुकुमाल बड़ा होने लगा| यौवन के प्रागंण में प्रवेश करने के साथ ही उसने पुरुषो की समस्त ७२ कलाओं में निपुणता हासिल कर दी… इतना ही नहीं धर्मकला में भी वह निपुण हुआ| देवागणनाओ जैसी ३२ नवयौवना कन्याओं के साथ उसका पाणीग्रहण हुआ|
एक बार आर्य-सुहस्ती म. पृथ्वीतल को पावन करते हुए अवंती में भद्र सेठ के द्वारा दी हुई वस्ति में पधारे| रात्री के समय में आचार्य भगवंत नलिनी गुल्म विमान अध्ययन का पुनरावर्तन करने लगा | उस समय अवंतीसुकुमाल पास ही के भवन में बैठा हुआ अपनी पत्नियो के साथ वार्ता-विनोद कर रहा था|
आचार्य भगवंत की स्वाध्याय-ध्वनि के शब्द अवंतीसुकुमाल के कानों में गिरे और वह सोचने लगा, “अहो! आचार्य भगवंत स्वाध्याय का वर्णन कर रहे है….वह दृश्य तो मैंने कही देखा है इस प्रकार विचार करते हुए उसे तत्श्रण जातिस्मरण ज्ञान उत्पान हो हुआ| उसे अपना पूर्व भव प्रत्यक्ष दिखाई देने लगा|
उसे लगा , “अहो ! गत भव में मई इसी नलिनी गुल्म विमान में देव के रूप में था| वहां के सुख और यहाँ के सुख में कितना बड़ा अंतर है| वहां के सुख मेरु-तुल्य है, तो यहाँ के सुख सरसों जितने ही है – इस प्रकार विचार कर वह उसी समय आचार्य भगवंत के पास आकर अत्यंत ही विनय पूर्वक बोला, “हे भगवंत !आप जिस नलिनी गुल्म विमान का वर्णन कर रहे हो, तो क्या आप उस विमान में से आ रहे है? “
आचार्य भगवंत ने कहा , ” नहीं ! हम तो श्रुत (शास्त्र) के बल से उस विमान का वर्णन कर रहे है|
“प्रभो ! मई उसी देवविमान में से च्यवकर आया हूँ -जातीस्मरण ज्ञान से मुझे उस विमान के सुख प्रत्यक्ष दिखाई दे रहे है….अब मुझे यहाँ के सुख पसंद नहीं है, यहाँ के सुख मुझे तुच्छ प्रतीत हो रहे है| अत: मई यहाँ रहने में समर्थ नहीं हु| अत: पुन: वहां जाने के लिए मई दीक्षा लेना चाहता हूँ …. आप मुझे दीक्षा प्रदान करें|
आचार्य भगवंत ने कहा ,”महानुभाव ! लोहे के चने चबाना सरल है किन्तु संयम का पालन दुष्कर है |”
अवंतीसुकुमाल ने कहा , “प्रभो ! प्रव्रज्या को ग्रहण करने के लिए मेरा मन अत्यंत ही उत्कंठित बना हुआ है…मै दीर्घकाल तक संयम पालन करने में असमर्थ हूँ अत: दीक्षा अंगीकार कर तुरंत ही अनशन व्रत स्वीकार कर दूंगा | जिससे अल्पकाल के कष्टो से ही मेरा कार्य सिद्ध हो जाएगा|”
गुरुदेव ने कहा यह दीक्षा ग्रहण करने की इच्छा है, तो अपनी माता व पत्नियों की सम्मति लेकर आ जाओ |”
अवंतीसुकुमाल ने जाकर अपनी माता व पत्नी से बात की, परन्तु अनुमति नहीं मिलने पर उसने अपने आप ही दीक्षा अंगीकार कर ली”
साधू-वेश अंगीकार कर वह आचार्य भगवंत के पास आया| उसके साधुवेष को देख आचार्य भगवंत ने उसे दीक्षा प्रदान की | तत्पश्चात दीर्घकाल तक कष्ट सहन करने में असमर्थ होने के कारण तत्काल गुरुदेव की अनुज्ञा लेकर अनशन व्रत का स्वीकार कर, वहां से निकलकर श्मशान में जाकर कायोत्सर्ग ध्यान में खड़े हो गया|
पूर्व भव की स्त्री, जो मरकर सियारिनी बनी थी, वह वहां पर आई और अपने वैर का बदला लेने के लिए अवंतीसुकुमाल पर भयंकर उपसर्ग करने लगी|
सर्व प्रथम वह सियारिणी पैर का भाग खाने लगी| उसके बाद वह अपने बच्चों सहित अवंतीसुकुमाल के पेट आदि को खाने लगी|
इस प्रकार मरणांत होने पर भी अवंतीसुकुमाल अपने शुभ-ध्यान से लेश भी चलित नहीं हुए| इस प्रकार अत्यंत ही समाधिपूर्वक कालधर्म को प्राप्त कर अवंतिसुकुमाल मुनि नलिनीगुल्म विमान में देव के रूप में उत्पन्न हुए| प्रात:काल में देवताओं ने आकर अवंतीसुकुमाल मुनि का मोहत्सव किया|
इधर प्रात:काल में अवंतीसुकुमाल को नहीं देखने पर उसकी पत्नियों ने आकर आचार्य भगवंत को पूछा | अपने ज्ञानोपयोग द्वारा उसी रात्री में अवंतीसुकुमाल मुनि के ऊपर भयंकर मरणांत उपसर्ग, मृत्यु और नलिनी गुल्म विमान में उत्पति आदि को जानकर आदि को जानकार आचार्य भगवंत ने वह सब बात उन स्त्रियों को कही|
उन स्त्रियों ने जाकर वह बात भाद्रामाता को कही| इस बात को सुनकर भद्रा माता अपनी पुत्र वधुओं के साथस श्मशान में गई और वहां पर अपने पुत्र के मृत-कलेवर को देखकर एकदम करुण कल्पांत रूपदन करने लगी…उसके बाद अवंतीसुकुमाल मुनि के देह की अंतिम क्रिया की गई|
पुत्र-वियोग की वेदना से प्रतिबोध पाई भद्रा माता भी दीक्षा अंगीकार करने के लिए तैयार हो गई| भद्रा माता की इस पवित्र भावना को जानकार अवन्तीसुकुमाल की सभी स्त्रियाँ भी दीक्षा के लिए तैयार हो गई| आखिर एक गर्भवती स्त्री को छोड़कर भद्रामाता ने अन्य ३१ पुत्र वधुओ के साथ भागवती दीक्षा अंगीकार कर ली |
समय व्यतीत होने पर उस स्त्री ने एक रत्न को जन्म दिया| धीरे-धीरे वह पुत्र बड़ा हुआ | उसी पुत्र ने अवंतीसुकुमाल पिता मुनि की याद में वीर सं. २०५० में अवंतीनगरी के भूषण समान भव्य जिनमन्दिर का निर्माण किया, जो भविष्य में महाकाल के नाम से प्रसिद्ध हुआ| उसमें पार्श्वनाथ के नाम से प्रख्यात हुआ|

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