Shree Antariksh Parshwanath Bhagwan History
Beautiful History of Antrikshji Tirth revealed
Do you know that as on date, which are the three most Prachin (old) Jin Murtis ?
First – Shri Neminath Dada – Girnar
Second – Shri Shankeshwar Parshvnath – Shankeshwar
Third – Shri Antriksh Parshvnath – Shirpur
We would all know many things about Girnar and surely about Shankeshwar….The Story of Shri Antrikshji Parshvanath is very interesting (see the attached file – Story with Colourful pictures).
Key Highlights of this Tirth
– The 42 inch Shri Antriksh Parshvanath Murti is 11,80,000 years old
– Murti was made out of Clay and Cow dung during the time of Bhagvan Munisuratswami
– Murti Staphana was done by Dev’s from Devlok and not by any human
– Murti is not touching the floor (it is in air without any support) and a cloth can pass below it
– The Tirth / Murti get referred in “Sakal Tirth Vandana” Sutra (spoken every day during morning pratikaman)…This reflects its importance.
It is impossible to narrate the mahima of Param Pavan, Pragat Prabhavi, Atyant Prachin, historical Shri Antrikshji Parshvanath prabhu.
In spite of all this, like everything has its highs and low, presently the Tirth is passing through its low :-(….. This is evident from the fact that not too many people know about this historical Tirth.
However, the times are changing…. There are increasing numbers of people visiting the Tirth…. This email is aimed at making more and more people aware about this Prabhavak and Prachin Tirth.
This Tirth is located in Shirpur….Close to Akola…. Map is attached.
Hope Shri Antriksh Parshvanath Bhagwan’s Darshan brings lot of fortune in your life (as Prabhu does to all).
If possible, please please pass this on to as many as possible and try coming down to this Tirth with family, friends, Mandal, Sangh……………If you have the capacity, get a Sangh along with you and Dada will surely bless you……………..as they say…………..
Bolo Shri Antrikshji Parshvanath Bhagwan Ki Jai….
अंतरीक्ष पार्श्वनाथ
श्री अंतरिक्ष पार्श्वनाथ
श्री अंतरिक्ष पार्श्वनाथ – शिरपूर
इस भव्य चमत्कारी प्रतिमा का इतिहास बहुत ही प्राचीन है| श्वेताम्बर मान्यतानुसार कहा जाता है, राजा रावण के बहनोई पाताल लंका के राजा खरदूषण के सेवक माली व् सुमाली ने पूजा निमित्त इस प्रतिमा का निर्माण बालू व् गोबर से किया था| जाते समय प्रतिमाजी को नजदीक के जलकुंड में विसर्जित किया था| शताब्दियो तक प्रतिमा जलकुंड में अदृश्य रही जो की विक्रम सं. ११४२ में चमत्कारिक घटनाओं के साथ पुन: प्रकट हुई| तत्पश्चात् श्री भावविजयजी गनि के सपुदेश से मंदिर का जिणोरद्वार करवाकर उन्ही के सुहस्ते विक्रम सं. १७१५ चैत्र शुक्ल ५ के दिन शुभ मुहरत में प्रतिष्ठा पुन: संपन्न हुई|
राजसेवक माली और सुमाली अनवधान से पूजा के लिए प्रतिमा लाना भूल गए थे, इसलिए पूजा के निमित्त यहाँ पर इस स्थान से वापिस जाते समय नजदीक के जलकुण्ड में विसर्जित किया था| प्रतिमा शताब्दियो तक जलकुण्ड में अदृश्य रही| समयान्तर में इस कुण्ड के जल का उपयोग करने पर एलीचपुर के राजा श्रीपाल का कुष्टरोग निवारण हुआ| इस आशचर्यमयी घटना पर विचार विमग्न चिंतन करते समय राजरानी को स्वप्न में दुष्टन्त हुआ की इस जलकुण्ड में श्री पार्श्वप्रभु की प्राचीन व् चमत्कारिक प्रतिमा विराजमान करके खुद सारथि बनकर मन चाहे वहा निशंक मन से ले जा सकता है| शंका करना नहीं व न पीछे मुड़कर देखना|
उक्त दुष्टान्त पर राजा द्वारा अन्वेषण करवाने पर प्रतिमा प्राप्त हुई| राजा ने प्रतिमाजी को विशाल जनसमूह के बीच धूमधाम के साथ वैसे ही वाहन पर रखकर उसे एलिचपुर ले जाने का उपक्रम किया, वाहन के साथ प्रतिमा चली| पर बीच में राजा के मन में शंका हुई की इतनी बड़ी प्रतिमा गाडी के साथ आती है या नहीं| इसलिए उसने शांत ह्रदय से पीछे मुड़कर देखा तो प्रतिमाजी उसी जगह पर एक पेड़ के नीचे आकाश में उधर स्थिर हो गई| कहा जाता है उस समय इस प्रतिमाजी के नीचे से घुड़सवार निकल जाय इतनी ऊँची उधर थी|
राजा इस चमत्कारिक घटना से प्राभावित हुआ|वही पर एक भव्य मंदिर का निर्माण करवाया व उस मंदिर में प्रभु को प्रतिष्टि करवाना चाहा| प्रतिष्ठा के समय राजा के मन में अहंकार आने आने के कारण, लाख कोशिश करने पर भी प्रतिमा अपने स्थान से नहीं हिली| मंदिर सुना का सुना ही रहा| जो आज भी “पावली मंदिर” के नाम से प्रसीध है| जिस पेड़ के नीचे प्रतिमा स्थिर हुई थी वह भी मंदिर के नजदीक ही स्थित है| प्रतिष्ठा को समय उपस्थित आचार्य श्री अभयदेवसूरीश्वर्
जी के उपदेश से श्री संघ ने गाँव के बीच एक दूसरा विशाल संघ मंदिर बनवाया और रजा के सान्निध्य में संघ मंदिर में प्रतिष्ठा करवाने का निर्णय लेने पर प्रतिमाजी का संघ मंदिर में आगमान हुआ और बड़े उत्साह व् मंगलध्वनि के साथ प्रतिष्ठा संपन्न हुई|
वि.सं. १७१५ में श्री भावविजयगनीजी को प्रभु दर्शन की अभिलाषा होने पर अंतरिक्षजी आए व भाव से प्रभु दर्शन करने पर आँखों की गई रोशनी फिर से आई, अंधापा दूर हुआ| उन्होंने यहाँ रहकर जीणोरद्वार करवाया व सं १७१५ चैत्र शुक्ल ५ को पुन: प्रतिष्ठा करवाई उस समय प्रतिमाजी जमीन से एक अंगुल प्रमाण अधर रही, जो अभि भी यशावत है| लेकिन वर्तमान में काल के प्रभाव से बाये किनारे पर नहींवत बिन्दुमात्र भाग का स्पर्श हुआ नजर आता है|
चमत्कार :
श्री भाव विजयजी गणी को आँख का भयंकर रोग लागू पड़ा था| विजयदेवसूरीजी की सूचना से उन्होंने पद्मावती मंत्र की आराधना की| पद्मावती देवी ने अंतरिक्ष पार्श्वनाथ प्रभु का इतिहास व महत्त्व समझाया|
पू. भावविजयजी गणी संघ सहित अंतरिक्षजी पधारे|
उन्होंने प्रभु की भावपूर्वक भक्ति की उस भक्ति के प्रभाव से उनका अंधत्व दूर हो गया| उनके नेत्रपटल खुल गए| यह रोमांचक घटना वि.सं १७१५ में बनी| इस मंदिर का पुन: जिणोरद्वार हुआ और १७१७ चैत्र सूद ५ का पुन: प्रतिष्ठा हुई|