Categories : Jain Stotra, JAINISM 87. Vairagya Shatak | वैराग्य शतक पवणुव्व गयण मग्गे , अलक्खिओ भमइ भववणे जीवो । ठाणट्ठाणंमि समु – ज्झिऊण धण सयणसंघाए ॥८७ ॥ : अर्थ : स्थान – स्थान में धन तथा स्वजन के समूह को छोड़कर भव वन में अपरिचित बना हुआ यह जीव आकाश मार्ग में पवन की तरह अदृश्य रहकर भटकता रहता है ।।87 ।। Related Articles 3. Shree Uvvasaggaharam Stotram | श्रीउवसग्गहरं स्तोत्रम् 2. Namskar Mantrastotram | नमस्कार मन्त्रस्तोत्रम 1. Aatma Raksha Stotra | आत्मरक्षास्तोत्रम् 104. Vairagya Shatak | वैराग्य शतक 103. Vairagya Shatak | वैराग्य शतक