87. Vairagya Shatak | वैराग्य शतक

87. Vairagya Shatak | वैराग्य शतक

87. Vairagya Shatak | वैराग्य शतक

पवणुव्व गयण मग्गे ,

अलक्खिओ भमइ भववणे जीवो ।

ठाणट्ठाणंमि समु –

ज्झिऊण धण सयणसंघाए ॥८७ ॥

: अर्थ :

स्थान – स्थान में धन तथा स्वजन के समूह को छोड़कर भव वन में अपरिचित बना हुआ यह जीव आकाश मार्ग में पवन की तरह अदृश्य रहकर भटकता रहता है ।।87 ।।

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