Antarikshji Teerth

Antarikshji Teerth

Antarikshji Teerth

 

Shri Parshwanath Bhagwan

Address

Post : Shirpur, District : Washim 444504, Maharashtra

Nearest Railway Station

Washim

Nearest Airport:Aurangabad

How To Reach

Nearest railway station is Washim. Akola is at 72 KM. Shirpur is at 11 KM. Malegaon is the nearest big city. Public & private transport is available.

  • Trust Name:Shree Antariksh Parshvanath Maharaj Sansthan

Importance:Situated in the Shirpur village of the Washim district in Maharashtra, this temple houses a 107 cm tall idol of Shree Parshvanath Bhagwan.

Brief History:The history of this Teerth & this idol is very ancient. A legend says that, once King Khadushan – the ruler of ‘Patal Lanka’ & King Ravana’s brother-in-law was travelling by sky across this region. He alighted down here as it was time for his meals. He realized that he had forgotten to carry along an idol of the Lord with him. In order to abide by his vow – to have meals only after performing the Lord’s puja, he made an idol out of mud & cow dung. After fulfilling his promise, he later submerged the idol into a pond nearby. The idol remained invisible in the pond for many years & miraculously manifested itself in Vikram Year 1142.A new temple was built by the ‘Sangh’ to install the idol which was consecrated on the 5th day (full moon phase) of the ‘Maha’ month in Vikram Year 1142 by His Holiness Acharya Abhaydevasurishvarji Ma.Sa. Numerous miraculous events have been associated with this remarkably artistic & beautiful idol which is known to fulfill the wishes of the devotees. Revered equally by both, the Digambar & the Shwetambar Sects of Jains, the ‘puja’ of the Lord is performed according to their respective beliefs & methods as per the given timelines.

अंतरीक्ष पार्श्वनाथ

श्री अंतरिक्ष पार्श्वनाथ
श्री अंतरिक्ष पार्श्वनाथ – शिरपूर
इस भव्य चमत्कारी प्रतिमा का इतिहास बहुत ही प्राचीन है| श्वेताम्बर मान्यतानुसार कहा जाता है, राजा रावण के बहनोई पाताल लंका के राजा खरदूषण के सेवक माली व् सुमाली ने पूजा निमित्त इस प्रतिमा का निर्माण बालू व् गोबर से किया था| जाते समय प्रतिमाजी को नजदीक के जलकुंड में विसर्जित किया था| शताब्दियो तक प्रतिमा जलकुंड में अदृश्य रही जो की विक्रम सं. ११४२ में चमत्कारिक घटनाओं के साथ पुन: प्रकट हुई| तत्पश्चात् श्री भावविजयजी गनि के सपुदेश से मंदिर का जिणोरद्वार करवाकर उन्ही के सुहस्ते विक्रम सं. १७१५ चैत्र शुक्ल ५ के दिन शुभ मुहरत में प्रतिष्ठा पुन: संपन्न हुई|
राजसेवक माली और सुमाली अनवधान से पूजा के लिए प्रतिमा लाना भूल गए थे, इसलिए पूजा के निमित्त यहाँ पर इस स्थान से वापिस जाते समय नजदीक के जलकुण्ड में विसर्जित किया था| प्रतिमा शताब्दियो तक जलकुण्ड में अदृश्य रही| समयान्तर में इस कुण्ड के जल का उपयोग करने पर एलीचपुर के राजा श्रीपाल का कुष्टरोग निवारण हुआ| इस आशचर्यमयी घटना पर विचार विमग्न चिंतन करते समय राजरानी को स्वप्न में दुष्टन्त हुआ की इस जलकुण्ड में श्री पार्श्वप्रभु की प्राचीन व् चमत्कारिक प्रतिमा विराजमान करके खुद सारथि बनकर मन चाहे वहा निशंक मन से ले जा सकता है| शंका करना नहीं व न पीछे मुड़कर देखना|
उक्त दुष्टान्त पर राजा द्वारा अन्वेषण करवाने पर प्रतिमा प्राप्त हुई| राजा ने प्रतिमाजी को विशाल जनसमूह के बीच धूमधाम के साथ वैसे ही वाहन पर रखकर उसे एलिचपुर ले जाने का उपक्रम किया, वाहन के साथ प्रतिमा चली| पर बीच में राजा के मन में शंका हुई की इतनी बड़ी प्रतिमा गाडी के साथ आती है या नहीं| इसलिए उसने शांत ह्रदय से पीछे मुड़कर देखा तो प्रतिमाजी उसी जगह पर एक पेड़ के नीचे आकाश में उधर स्थिर हो गई| कहा जाता है उस समय इस प्रतिमाजी के नीचे से घुड़सवार निकल जाय इतनी ऊँची उधर थी|
राजा इस चमत्कारिक घटना से प्राभावित हुआ|वही पर एक भव्य मंदिर का निर्माण करवाया व उस मंदिर में प्रभु को प्रतिष्टि करवाना चाहा| प्रतिष्ठा के समय राजा के मन में अहंकार आने आने के कारण, लाख कोशिश करने पर भी प्रतिमा अपने स्थान से नहीं हिली| मंदिर सुना का सुना ही रहा| जो आज भी “पावली मंदिर” के नाम से प्रसीध है| जिस पेड़ के नीचे प्रतिमा स्थिर हुई थी वह भी मंदिर के नजदीक ही स्थित है| प्रतिष्ठा को समय उपस्थित आचार्य श्री अभयदेवसूरीश्वर्
जी के उपदेश से श्री संघ ने गाँव के बीच एक दूसरा विशाल संघ मंदिर बनवाया और रजा के सान्निध्य में संघ मंदिर में प्रतिष्ठा करवाने का निर्णय लेने पर प्रतिमाजी का संघ मंदिर में आगमान हुआ और बड़े उत्साह व् मंगलध्वनि के साथ प्रतिष्ठा संपन्न हुई|
वि.सं. १७१५ में श्री भावविजयगनीजी को प्रभु दर्शन की अभिलाषा होने पर अंतरिक्षजी आए व भाव से प्रभु दर्शन करने पर आँखों की गई रोशनी फिर से आई, अंधापा दूर हुआ| उन्होंने यहाँ रहकर जीणोरद्वार करवाया व सं १७१५ चैत्र शुक्ल ५ को पुन: प्रतिष्ठा करवाई उस समय प्रतिमाजी जमीन से एक अंगुल प्रमाण अधर रही, जो अभि भी यशावत है| लेकिन वर्तमान में काल के प्रभाव से बाये किनारे पर नहींवत बिन्दुमात्र भाग का स्पर्श हुआ नजर आता है|
चमत्कार :
श्री भाव विजयजी गणी को आँख का भयंकर रोग लागू पड़ा था| विजयदेवसूरीजी की सूचना से उन्होंने पद्मावती मंत्र की आराधना की| पद्मावती देवी ने अंतरिक्ष पार्श्वनाथ प्रभु का इतिहास व महत्त्व समझाया|
पू. भावविजयजी गणी संघ सहित अंतरिक्षजी पधारे|
उन्होंने प्रभु की भावपूर्वक भक्ति की उस भक्ति के प्रभाव से उनका अंधत्व दूर हो गया| उनके नेत्रपटल खुल गए| यह रोमांचक घटना वि.सं १७१५ में बनी| इस मंदिर का पुन: जिणोरद्वार हुआ और १७१७ चैत्र सूद ५ का पुन: प्रतिष्ठा हुई|

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